टी. एन. शेषन को तो मैं कभी माफ़ नहीं करूंगा। किसी कीमत पर नहीं करूंगा।
इस जनम में तो क्या अगले जनम में भी नहीं करूंगा। भले ही उन्होंने पर्सनली
मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं और बिगाड़ सकते भी नहीं, क्योंकि बिगाड़ करने के लिए
परस्पर जान-पहचान, व्यवहार अथवा दोस्ती होना लाज़मी है जबकि वो तो
मुझे जानते तक नहीं। अब एक अजनबी दूसरे अजनबी का क्या बिगाड़ अथवा
उखाड़ सकता है? इतिहास साक्षी है, जब भी कुछ बिगाड़ा है, किसी सुपरिचित ने
ही बिगाड़ा है, अपरिचित को तो इतनी फ़ुर्सत ही कहां जो वह स्वयं का समय
खराब करके हमारा बिगाड़ करने आये। लेकिन यहां मैं अपना रोना नहीं रो रहा
हूं, देश की बात कर रहा हूं और देश का बहुत बड़ा नुकसान श्रीमान टी. एन. शेषन
ने किया है, ये बात मैं छाती पीट-पीटकर कह सकता हूं।
याद करो वो दिन.... जब चुनाव हमारे यहां राष्ट्रीय उत्सव की तरह आया करते थे।
पूरे माहौल में एक खिलखिलाहट और उत्साह की तरंगे लहराया करती थी। यों
लगता था मानो दीपावली, ईद, बैसाखी और क्रिसमस एक साथ, एक दिन ही आ
गये हों। क्या महिलाएं क्या पुरुष सबको लगता था कि अब कुछ बदलाव होगा
और देश का भला होगा। शहरों के शहर, गांवों के गांव, यहां तक कि छोटी-छोटी
ढाणियां भी लाउड स्पीकर पर पूरे लोड के साथ ऐसे-ऐसे देशभक्ति गीत गुंजाते थे
कि दुश्मन देश की चूलें हिल जाती थी। घर-घर, गली-गली और चौराहे-चौराहे
पर विभिन्न पार्टियों के झण्डे-झंडियाँ बैनर और पोस्टर के साथ-साथ नई की नई
दीवारों पर काले रंग या नीले रंग से लिखे गये नारे बच्चों का मन मोह लेते थे और
छोटे-छोटे बच्चे भी पार्टियों के बिल्ले और बैच अपनी कमीज की जेब पर टांक कर
नेतागिरी किया करते थे। कोई चिल्लाता था, 'जात पर न पात पर, मुहर लगाओ
हाथ पर', कोई कहता, 'कांग्रेस आई धोखा है, धक्का मारो मौका है'! मैं खुद
चिल्लाया करता था, 'इन्दिराजी की अन्तिम इच्छा-राधेश्याम चलाए रिक्शा'
लेकिन अफ़सोस! न अब वो झण्डे-झंडियाँ हैं, न नारे हैं, न स्पीकर हैं, न ही गाने
हैं। यूं लगता है मानो चुनाव लोकतन्त्र का महापर्व नहीं बल्कि मातम के रूप में
मनाया जा रहा है। और ये सब उसी सनकी बन्दे टी. एन. शेषन का किया धरा
है जिसने इस सब पर पाबन्दी लगा दी।
अरे भाई ये भारत है यहां का राजनीतिक व्यक्ति पांच साल तक पब्लिक को सिर्फ़
इसलिए लूटता है ताकि आने वाले चुनाव में वो खुलकर खर्च कर सके। अब तुम
उसे खर्च करने ही नहीं दोगे तो बेचारा उन रूपयों - सॉरी काले रूपयों का करेगा
क्या? घर में रखेगा तो चोर चुरा सकते हैं या आयकर वाले ऐंठ सकते हैं, बैंक में
डाल नहीं सकता। मजबूर होकर बेचारे को देशद्रोही बनना पड़ता है और देश का
काला धन विदेशी बैंकों में जमा कराना पड़ता है।
सबसे ज़्यादा मार तो पड़ी है बेचारे आम आदमी पर जो कि चुनाव के समय चाँदी
में खेला करता था। क्योंकि ख़ूब जीपें दौड़ती थी। जीपें दौड़ती थी तो जीप वाले को
भाड़ा मिलता था, ड्राइवर को काम मिलता था, उनके खराब होने पर मैकेनिक
और पंचर वाले को काम मिलता था, दुर्घटना होने पर डाक्टर को काम मिलता
था। इसी प्रकार बैनर व झण्डों के लिए कपड़ा बिकता था, रंग बिकते थे, डंडे
बिकते थे, धागे बिकते थे तथा दर्जी और पेंटर को काम मिलता था। पोस्टर छपते
थे तो कागज़ बिकता था, स्याही बिकती थी और प्रिन्टिंग प्रेस वालों को काम
मिलता था। बैच और बिल्ले बनाने वालों को, ढोल और ताशा बजाने वालों को,
ज़िन्दाबाद का नारा लगाने वालों को, दारू पीने-पिलाने वालों को, ढाबे और
भोजनालय वालों को भरपूर काम मिलता था और काम का कई गुना पैसा मिलता
था । कुछ मिलाकर परोक्ष और अपरोक्ष रूप से सभाओं के लिए वक्ता, साउण्ड
सिस्टम और कलाकार मंडलियां सब बुक हो जाते थे। लेकिन आज ऐसा कुछ भी
नहीं रहा। लगता ही नहीं कि भारत जैसे बड़े देश का सबसे बड़ा चुनाव हो रहा है।
अरे इससे ज्यादा हन्गामा तो ट्रक युनियन के अध्यक्ष के चुनाव में हो जाया
करता था।
मिस्टर शेषन! तुमने ऐसी वाट लगाई है चुनाव की कि चुनाव को स्वयं विश्वास
नहीं हो रहा कि वह भारत में हो रहा है जिन लोगों की रोजी-रोटी तुमने छीनी है
उनकी बददुआ कभी खाली नहीं जाएगी। ये उन बददुआओं का ही परिणाम है कि
तुम घर बैठे हो, तुम्हारे टाइम में दस्यु रानी फूलन देवी जीत गयी थी और तुम
हार गये थे, याद है न!
काश! कोई ऐसा चुनाव आयुक्त आये जो इन सब पाबन्दियों को हटा दे ताकि
चुनाव फिर से उत्सव बन जाए और मेरे देश का आम आदमी इसका कुछ लाभ
उठा पाये! अरे भाई कोई है?
जय हिन्द !
-अलबेला खत्री
इस जनम में तो क्या अगले जनम में भी नहीं करूंगा। भले ही उन्होंने पर्सनली
मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं और बिगाड़ सकते भी नहीं, क्योंकि बिगाड़ करने के लिए
परस्पर जान-पहचान, व्यवहार अथवा दोस्ती होना लाज़मी है जबकि वो तो
मुझे जानते तक नहीं। अब एक अजनबी दूसरे अजनबी का क्या बिगाड़ अथवा
उखाड़ सकता है? इतिहास साक्षी है, जब भी कुछ बिगाड़ा है, किसी सुपरिचित ने
ही बिगाड़ा है, अपरिचित को तो इतनी फ़ुर्सत ही कहां जो वह स्वयं का समय
खराब करके हमारा बिगाड़ करने आये। लेकिन यहां मैं अपना रोना नहीं रो रहा
हूं, देश की बात कर रहा हूं और देश का बहुत बड़ा नुकसान श्रीमान टी. एन. शेषन
ने किया है, ये बात मैं छाती पीट-पीटकर कह सकता हूं।
याद करो वो दिन.... जब चुनाव हमारे यहां राष्ट्रीय उत्सव की तरह आया करते थे।
पूरे माहौल में एक खिलखिलाहट और उत्साह की तरंगे लहराया करती थी। यों
लगता था मानो दीपावली, ईद, बैसाखी और क्रिसमस एक साथ, एक दिन ही आ
गये हों। क्या महिलाएं क्या पुरुष सबको लगता था कि अब कुछ बदलाव होगा
और देश का भला होगा। शहरों के शहर, गांवों के गांव, यहां तक कि छोटी-छोटी
ढाणियां भी लाउड स्पीकर पर पूरे लोड के साथ ऐसे-ऐसे देशभक्ति गीत गुंजाते थे
कि दुश्मन देश की चूलें हिल जाती थी। घर-घर, गली-गली और चौराहे-चौराहे
पर विभिन्न पार्टियों के झण्डे-झंडियाँ बैनर और पोस्टर के साथ-साथ नई की नई
दीवारों पर काले रंग या नीले रंग से लिखे गये नारे बच्चों का मन मोह लेते थे और
छोटे-छोटे बच्चे भी पार्टियों के बिल्ले और बैच अपनी कमीज की जेब पर टांक कर
नेतागिरी किया करते थे। कोई चिल्लाता था, 'जात पर न पात पर, मुहर लगाओ
हाथ पर', कोई कहता, 'कांग्रेस आई धोखा है, धक्का मारो मौका है'! मैं खुद
चिल्लाया करता था, 'इन्दिराजी की अन्तिम इच्छा-राधेश्याम चलाए रिक्शा'
लेकिन अफ़सोस! न अब वो झण्डे-झंडियाँ हैं, न नारे हैं, न स्पीकर हैं, न ही गाने
हैं। यूं लगता है मानो चुनाव लोकतन्त्र का महापर्व नहीं बल्कि मातम के रूप में
मनाया जा रहा है। और ये सब उसी सनकी बन्दे टी. एन. शेषन का किया धरा
है जिसने इस सब पर पाबन्दी लगा दी।
अरे भाई ये भारत है यहां का राजनीतिक व्यक्ति पांच साल तक पब्लिक को सिर्फ़
इसलिए लूटता है ताकि आने वाले चुनाव में वो खुलकर खर्च कर सके। अब तुम
उसे खर्च करने ही नहीं दोगे तो बेचारा उन रूपयों - सॉरी काले रूपयों का करेगा
क्या? घर में रखेगा तो चोर चुरा सकते हैं या आयकर वाले ऐंठ सकते हैं, बैंक में
डाल नहीं सकता। मजबूर होकर बेचारे को देशद्रोही बनना पड़ता है और देश का
काला धन विदेशी बैंकों में जमा कराना पड़ता है।
सबसे ज़्यादा मार तो पड़ी है बेचारे आम आदमी पर जो कि चुनाव के समय चाँदी
में खेला करता था। क्योंकि ख़ूब जीपें दौड़ती थी। जीपें दौड़ती थी तो जीप वाले को
भाड़ा मिलता था, ड्राइवर को काम मिलता था, उनके खराब होने पर मैकेनिक
और पंचर वाले को काम मिलता था, दुर्घटना होने पर डाक्टर को काम मिलता
था। इसी प्रकार बैनर व झण्डों के लिए कपड़ा बिकता था, रंग बिकते थे, डंडे
बिकते थे, धागे बिकते थे तथा दर्जी और पेंटर को काम मिलता था। पोस्टर छपते
थे तो कागज़ बिकता था, स्याही बिकती थी और प्रिन्टिंग प्रेस वालों को काम
मिलता था। बैच और बिल्ले बनाने वालों को, ढोल और ताशा बजाने वालों को,
ज़िन्दाबाद का नारा लगाने वालों को, दारू पीने-पिलाने वालों को, ढाबे और
भोजनालय वालों को भरपूर काम मिलता था और काम का कई गुना पैसा मिलता
था । कुछ मिलाकर परोक्ष और अपरोक्ष रूप से सभाओं के लिए वक्ता, साउण्ड
सिस्टम और कलाकार मंडलियां सब बुक हो जाते थे। लेकिन आज ऐसा कुछ भी
नहीं रहा। लगता ही नहीं कि भारत जैसे बड़े देश का सबसे बड़ा चुनाव हो रहा है।
अरे इससे ज्यादा हन्गामा तो ट्रक युनियन के अध्यक्ष के चुनाव में हो जाया
करता था।
मिस्टर शेषन! तुमने ऐसी वाट लगाई है चुनाव की कि चुनाव को स्वयं विश्वास
नहीं हो रहा कि वह भारत में हो रहा है जिन लोगों की रोजी-रोटी तुमने छीनी है
उनकी बददुआ कभी खाली नहीं जाएगी। ये उन बददुआओं का ही परिणाम है कि
तुम घर बैठे हो, तुम्हारे टाइम में दस्यु रानी फूलन देवी जीत गयी थी और तुम
हार गये थे, याद है न!
काश! कोई ऐसा चुनाव आयुक्त आये जो इन सब पाबन्दियों को हटा दे ताकि
चुनाव फिर से उत्सव बन जाए और मेरे देश का आम आदमी इसका कुछ लाभ
उठा पाये! अरे भाई कोई है?
जय हिन्द !
-अलबेला खत्री
2 comments:
इरादा तो नेक लग रहा है अच्छी पोस्त है आभार्
प्रभावी व्यंग्य ....तीखे वार....बढिया कटाक्ष
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