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Albela Khatri

फ़िराक गोरखपुरी के दोहे.........भाग- एक

नया घाव है प्रेम का जो चमके दिन-रात

होनहार बिरवान के हिकने-चिकने पात



यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत



जो मिटे ऐसा नहीं कोई भी संजोग

होता आया है सदा मिलन के बाद वियोग



जग के आँसू बन गए निज नयनों के नीर

अब तो अपनी पीर भी जैसे पराई पीर



कहाँ कमर सीधी करे, कहाँ ठिकाना पाय

तेरा घर जो छोड़ दे, दर-दर ठोकर खाय



जगत-धुदलके में वही चित्रकार कहलाय

कोहरे को जो काट कर अनुपम चित्र बनाय



बन के पंछी जिस तरह भूल जाय निज नीड़

हम बालक सम खो गए, थी वो जीवन-भीड़



याद तेरी एकान्त में यूँ छूती है विचार

जैसे लहर समीर की छुए गात सुकुमार



मैंने छेड़ा था कहीं दुखते दिल का साज़

गूँज रही है आज तक दर्द भरी आवाज़



दूर तीरथों में बसे, वो है कैसा राम

मन-मन्दिर की यात्रा,मूरख चारों धाम



वेद,पुराण और शास्त्रों को मिली उसकी थाह

मुझसे जो kuchh kah gayi , इक बच्चे की निगाह



____________________
रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी

____________________
संकलन अलबेला खत्री


4 comments:

Mithilesh dubey August 7, 2009 at 10:00 AM  

यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

बात इकदम पते की है।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद August 7, 2009 at 10:32 AM  

कौन कहता है उर्दू एक ही समुदाय की ज़बान है????

ओम आर्य August 7, 2009 at 2:27 PM  

bahut hi khubsoorat hai aapaki kawita ......our kawita me ubhare vichar............jo padhane ke baad man ko shakun deta hai

प्रिया August 7, 2009 at 4:05 PM  

firaak gorakhpuri ko le aaye is baar aap......raheem kabir ke siwa kisi ke dohe nahi padhe they achcha laga inhe padhkar

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