सुर है लेकिन ताल नहीं है बाबाजी
पॉकेट है पर माल नहीं है बाबाजी
क्योंकर कोई चूमे हमको सावन में
अपने चिकने गाल नहीं है बाबाजी
दर्पण से उनको नफ़रत हो जाती है
जिनके सर पर बाल नहीं है बाबाजी
मेहमानों की ख़ातिरदारी कैसे हो
घर में आटा दाल नहीं है बाबाजी
देश बेच कर खाने वाले लोगों का
लोहू शायद लाल नहीं बाबाजी
उनकी ममता घुट घुट कर मर जाती है
जिनके अपने लाल नहीं है बाबाजी
मंहगाई के बिच्छू डंक चुभाते हैं
मोटी अपनी खाल नहीं बाबाजी
हास्यकवि 'अलबेला' ऐसा घोड़ा है
जिसके खुर में नाल नहीं है बाबाजी
-अलबेला खत्री
9 comments:
वाह वाह कविराज
खूब जमाया शब्दों का मेला
सुरों की ताल वही है बाबाजी
अलबेला साहब पर लगाम लगाने का ,
वैसे भी कोई सवाल नहीं है बाबाजी !
लिखते रहिये :)
आपका कहने का बेबाक अंदाज़ गंभीर बातों को सहज सरल रूप देकर फिर से गंभीर बना देता है .
वाह वाह !
कोई अलबेला जी से बाज़ी मारे
ऐसा माँ का लाल नहीं है बाबा जी .
बहुत ही कमाल का लिखा है अलबेला भाई.... ज़बरदस्त...
मैं आपकी पोस्ट अक्सर मोबाइल से पढता हूँ, लेकिन आपके ब्लॉग पर मोबाइल से कमेन्ट नहीं हो पाता है, कृपया इसका मोबाइल वर्ज़न चालू करें. आज भी मोबाइल से पढ़ चुका था, लेकिन कमेन्ट करने के लिए घर आकार खासतौर पर लेपटाप चालू किया.... :-)
धन्यवाद शाहनवाज जी........
आपके कमेन्ट सर आँखों पर
सादर
बहुत सुंदर है रंग जमाया
होली का नहीं बबाल बाबा जी !!
मेहमानों की ख़ातिरदारी कैसे हो
घर में आटा दाल नहीं है बाबाजी
बहुत खूब, सुंदर हास्य - व्यंग्य भरी प्रस्तुति ..
सादर !!
बढ़िया ||
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