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Albela Khatri

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हे सोनिया नन्दन ! ब्याह करालो न प्लीज़............

ना तो आपने बुलाणा है, ना ही मुझे आणा है। ना मुझे प्रीतिभोज खाणा है,

बारात में जाणा है, ना तो मुझे सेहरा गाणा है और ना ही आपकी घोड़ी के आगे

भंगड़ा पाणा है। फिर मैं क्यूं फोकट में परेशान होऊं भाई? मुझे क्या मतलब

है आपकी शादी से ? हां...आप अपनी शादी के स्वागत समारोह में कोई

हास्य कवि-सम्मेलन कराने का ठेका मुझे दो, तो मैं कुछ सोचूं। अब मैं देश

के अन्य लोगों की तरह फ़ुरसितया तो हूं नहीं कि लट्ठ लेके आपके पीछे पड़

जाऊं या हाथ जोड़ के गिड़गिड़ाऊं कि राहुल बाबा शादी करा लो ! शादी करा लो!!

भई आप बालिग हैं, अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं, अपने निर्णय स्वयं कर

सकते हैं। जीवन आपका वैयक्तिक है, घर-संसार आपका वैयक्तिक है और शरीर

भी आपका ही वैयक्तिक है तो हम कौन होते हैं आपकी खीर में चम्मच चलाने

वाले... यदि आपको लगता है कि सब कुछ ठीक-ठाक है, कहीं कोई प्रोब्लम

नहीं है तथा शादी के बाद आप सारी ज़िम्मेदारियां अच्छे से निभालेंगे तो कर

लीजिए... और यदि ज़रा भी सन्देह हो तो मत कीजिए... इसमें कौनसा पहाड़

उठा के लाना है। ये कौनसा राष्ट्रीय चर्चा का विषय है जो देश के करोड़ों लोगों

ने हंगामा कर रखा है और आपकी माताश्री पत्रकारों को जवाब देते-देते थक

गई हैं कि भाई उसे जब शादी करानी होगी, करा लेगा। अब आपकी दीदी

प्रियंका यदि घर में भाभी लाने को उतावली हों, तो ये उनका अपना निर्णय

है और उनको पूरा अधिकार है कि वे आप पर दबाव बना कर, अथवा प्यार

से पुचकार कर आपको ब्याह के लिए राज़ी कर ले, लेकिन आम जनता

ख़ासकर टी.वी. चैनल वालों को क्या मतलब है यार ? क्यों उनसे आपका सुख

बर्दाश्त नहीं हो रहा ? क्यों वे आपकी आज़ादी और उन्मुक्तता झेल नहीं पा रहे ?

ये सच है सोनियानंदन ! कि जिसने शादी नहीं की उसने अपना जीवन बिगाड़

लिया, लेकिन मज़े की बात तो ये है, जिसने की उसने भी क्या उखाड़ लिया ?

सो हे राजीवकुलभूषण ! आप शादी कराओ तो मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता

और करवाओ तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैं तो केवल और केवल इतना

कहना चाहता हूं कि यदि आपको ऐसा लगे कि आप शादी कराने के योग्य हो

और वाकई गृहस्थी का भार उठाने के काबिल हो, तो करा ही लेना, ज्य़ादा

देर मत करना। क्योंकि कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो समय पर ही कर लेने

चाहिए वरना कभी नहीं होते। शादी भी उन्हीं में से एक है, सही समय पे शादी

हो गई तो ठीक, वरना सारी ज़िन्दगी यों ही रहना पड़ता है। मेरी बात का

भरोसा हो तो अपने आस-पास नज़र दौड़ाओ.... अनेक उदाहरण मिल

जाएंगे... एपीजे अब्दुल कलाम, अटल बिहारी वाजपेयी, नरेन्द्र मोदी, ममता

बनर्जी, जयललिता मायावती जैसे कितने ही उदारहण आपके सामने

हैं। ये लोग राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन

शादीशुदा नहीं हो सके...क्योंकि इन लोगों ने केवल एक गलती की थी...

अरे वही ...समय पर शादी नहीं करने की। अब ये लोग बहुत पछताते

हैं...रात-रात भर मुकेश के दर्द भरे गाने गाते हैं... अरे भाई फूट-फूट के

रोते हैं अपनी तन्हाई पर... लेकिन इनके आंसू पोंछने वाला, इनकी पप्पी

लेकर जादू की झप्पी देने वाला कोई नहीं है.... अब नहीं है तो नहीं है, यार

इसमें मैं क्या करूं ? मैं आऊं क्या ? मैंने कोई ठेका ले रखा है इनके आंसू

पोंछने का ?


मैं तो ख़ुद अपनी शादी करा के पछता रहा हूं.... जब तक कुंवारा था, शेर

था शेर.... किसी की परवाह नहीं करता था....जैसे आप नहीं करते हैं लेकिन

जब से ब्याहा गया हूं एकदम पालतू खोत्ता हो गया हूं। पहले इतनी आज़ादी

थी कि पलंग के दोनों ओर से चढ़ सकता था और दोनों ओर से उतर भी

सकता था... अब तो ज़रा सी जगह में दुबक कर सोना पड़ता है क्योंकि बाकी

जगह पर तो वो हाथी का अण्डा कब्ज़ा कर लेता है।



लोगबाग़ मुझे छेड़ते हैं। कहते हैं यार खत्री ! तेरी पत्नी तो तूफ़ान है तूफ़ान, पूरे

मौहल्ले को हिला रखा है.. मैं कहता हूं यार, बधाई मुझे दो जो इस तूफ़ान में

भी दीया जला रखा है। सो हे इन्दिराजी के लाडले पौत्र... मिलाओ जल्दी से

कुण्डली गौत्र और हो जाओ हमारी तरह ज़ोरू के गुलाम।


हो जाओ ना भाई.... प्लीज......

अपने हाल पर अक्सर ये हिन्दुस्तान रोता है .......

रात के ग्यारह बजे हैं। मैं इण्डिया टी.वी. पर ब्रेकिंग न्यू.ज देख रहा हूं और देखते-

देखते रो पड़ा हूं। देख भी रहा हूं और रो भी रहा हूं देखता जा रहा हूं और रोता जा

रहा हूं क्योंकि टी.वी. स्क्रीन पर एक नन्हा सा मासूम बच्चा अपने छोटे-छोटे

कोमल हाथों से बड़े-बड़े जूते पॉलिश कर रहा है। बताया गया कि इस अबोध

बालक पर पूरा घर चलाने की ज़िम्मेदारी है इसलिए बड़ों-बड़ों को झुलसा देने

वाली इस गर्मी में, इतनी कम उम्र में भी उसे ऐसी मेहनत-मजूरी करनी पड़

रही है। इस करुणापूर्ण दृश्य का वीडियो बनाकर ''एक अलर्ट व्यूअर'' गौरव

अग्रवाल ने भेजा है जो रजत शर्मा को बहुत पसन्द आया इसलिए उसे अमुक

इंच का एक टी.वी. सेट इनाम में देने की घोषणा की गई।


घोषणा करने वाली समाचार सुन्दरी मुस्कुरा रही थी, रजत शर्मा भी मुस्कुरा

रहे थे, गौरव अग्रवाल भी मुस्कुराये होंगे और मज़े की बात तो ये है कि अगर

उस बच्चे ने स्वयं को टी.वी. पर देखा होगा तो वह भी ख़ुशी से मुस्कुराया ही

होगा लेकिन मैं हूं कि रोता चला जा रहा हूं। अब कुछ लोगों की तक़दीर में ही

रोना लिखा हो, तो कोई क्या कर सकता है?



लेकिन भाई लोगो, मेरे रोने का कारण ये नहीं कि उस बच्चे की दारुण दशा पर

मुझे दुःख हो रहा है, न ही इसलिए रो रहा हूं कि टी.वी. मुझे क्यों नहीं मिला

बल्कि मैं तो रो रहा हूं इन चैनल वालों को, इनकी बुद्धि को और इनकी निर्मम

व्यावसायिकता को जो उस बच्चे का वीडियो बनाने वाले को तो हज़ारों रुपये

का टी.वी. दे सकते हैं लेकिन उस बच्चे की या उसके परिवार की मदद नहीं

कर सकते। मैं रो रहा हूं उस वीडियो ग्राफर 'अलर्ट व्यूअर' को जिसने उस

बालक का ऐसा लिजलिजा वीडियो तो बना लिया लेकिन उसके आंसू नहीं पोंछे।



क्या फर्क़ है स्लमडॉग मिलेनियर बनाने वाले विदेशी निर्माता में और इसमें?

बड़ी मूवी बनाके ऑस्कर जीत लिया तो इसने छोटा वीडियो बनाके टी.वी. जीत

लिया....दोनों ही सम्वेदना शून्य हैं, दोनों ही गरीबों की गरीबी का उपहास उड़ाने

वाले हैं और दोनों ही मानवीयता के पतन की सीमा रेखा से नीचे जीवनयापन

करने वाले लोग हैं। अरे रजत शर्मा और गौरव अग्रवाल...तुम्हें वीडियो ही

दिखाना था तो उस बालक की हिम्मत का दिखाते, उसके दुःसाहस का दिखाते,

उसकी कर्मठता का दिखाते और उसकी खुद्दारी का दिखाते...जो इतना नन्हा

होकर भी हालात से लोहा ले रहा है और अपने पूरे परिवार को चलाने के लिए

लोगों के जूते पॉलिश कर रहा है... इनाम ही देना था तो उस बालक को देते...

लेकिन तुम क्यों देने लगे उसे इनाम? तुम जानते हो कि एक को दे दिया तो

कल लाइन लग जाएगी। क्योंकि हमारे देश में ऐसी ज़िन्दगी जीने वाले

दरिद्र और मजबूर लोगों की कोई कमी नहीं है। एक लम्बी कतार है जिन्हें न

पंजे वाले सम्हालते हैं, न कमल वाले पूछते हैं, न हाथी वाले मदद करते हैं, न

हंसिया-हथौड़े वाले इनकी खैर खबर पूछने आते हैं, न तो कोई घड़ी इन्हें

कभी सही टाइम दिखाती है न ही लालटेन की रोशनी इनकी झोपड़ी तक

पहुंचती है। इन अभागों की आँखों के आंसू तो स्वयं ही सूखते हैं- पोंछने कोई

नहीं आता। इससे ज्य़ादा दुर्भाग्य और विडम्बना की बात क्या होगी दया को

धर्म का मूल बताने वाले और करुणा को सर्वोपरि मानवीय संस्कृति समझने

वाले भारत के लोग इतने निर्दयी और कठोर होते जा रहे हैं कि उनको दूसरे

के दर्द की टीस महसूस नहीं होती बल्कि दूसरों की वेदना का भी व्यापार

करने में लगे हैं। ऐसी हालत में मुझ जैसा कोमल हृदयी कलमकार तो क्या

कोई भी रो पड़ेगा।



उदर की आग में जलता जहां इन्सान रोता है

ज़मीं के हाल पर यारो वहां आस्मान रोता है


किसे फ़ुर्सत, कोई देखे वतन के ज़ख्म 'अलबेला'

कि अपने हाल पर अक्सर ये हिन्दुस्तान रोता है


-अलबेला खत्री

बोलो... और कितना मजबूत प्रधानमन्त्री चाहिए ?

क्या हो रहा है भाई, ये क्या चल रहा है इस देश में? जिसे देखो वही हमारे

प्रधानमन्त्री का मज़ाक उड़ा रहा है और उन्हें मैडम के हाथों की कठपुतली

बता रहा है। न कोई आव देख रहा है न ताव, सब के सब लठ्ठ लेकर पीछे

पड़े हैं और एक ही बात सिद्घ करने पर

तुले हैं कि मनमोहनजी कमज़ोर हैं, मजबूत नहीं हैं। पहले इस प्रकार की

बातें सिर्फ भाजपा वाले ही कर रहे थे, अब तो यूपीए के कुछ सदस्यों ने भी

इसे बाहरी समर्थन देना शुरु कर दिया है। हालांकि सोनिया भाभी, राहुल बाबा

और प्रियंका बेबी के साथ-साथ सिब्बल, संघवी और शर्मा जैसे महारथी

बारम्बार देश को भरोसा दिला रहे हैं कि चिन्ता की कोई बात नहीं, सिंह साहब

पर्याप्त मजबूत हैं, लेकिन लोग हैं कि टस से मस नहीं हो रहे, बस एक ही गाना

गा रहे हैं कि देश को मजबूत प्रधानमन्त्री चाहिए इसलिए लौह पुरूष लालकृष्ण

आडवाणी ही चाहिए।



अब आडवाणी कितने बड़े लौह पुरुष हैं ये हम जानते हैं। लेकिन अभी उन पर

चर्चा करने का यह सही समय नहीं है। अभी तो चर्चा के हीरो डॉ. मनमोहन

सिंह हैं। जो कि बाइपास सर्जरी के बावजूद जगह-जगह घूमकर जनसभाओं

में भाषण दे रहे हैं, रात-दिन देश की चिन्ता में दुबले हुये जा रहे हैं और विरोधी

लोग हैं कि उन्हें मजबूत ही नहीं मान रहे हैं। भई कमाल है। ये तो सरासर

ज़्यादती है, ज़्यादती ही नहीं ज़ुल्म है।



अरे जिस आदमी के राज में कभी बनारस, कभी जयपुर, कभी असम, कभी

अहमदाबाद, कभी मालेगांव तो कभी मोडासा में बम फूटते रहे लेकिन सैकड़ों

लाशें देखकर भी जिसका दिल नहीं पसीजा, उसे आप मजबूत नहीं मान रहे?

सूरत में तापी, बिहार में कोसी, असम में ब्रहमपुत्र और यूपी में गंगा नदियों

के कहर ने जो कोहराम मचाया था उससे न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया की

आँखें नम हो गयी थी। हजारों लोग मरे, लाखों मवेशी और पक्षी मरे, लाखों

करोड़ रूपये का नुकसान हुआ लेकिन सिंह साहब और उनकी मण्डली का ध्यान

सेंसेक्स में ही रमा रहा। इस तबाही पर भी जिसकी आँखें नहीं भीगी, उसे आप

कमज़ोर बता रहे हैं?



मुंबई में इतना बड़ा आतंकवादी हमला हुआ। पूरा देश जाग गया और पाकिस्तान

के विरूद्घ कार्यवाई की मांग करने लगा, लेकिन इनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगी,

तब भी आप इनको कमज़ोर बता रहे हो। अरे पाकिस्तान के रास्ते तालिबानी

हत्यारे लगातार हमारे लिए खतरा बने हुये हैं और सारी सुरक्षा एजेन्सियां व

गुप्तचर संस्थाएं सतर्कता बरतने की हिदायत दे रही हैं इसके बावजूद वे चुनाव

प्रचार में जुटे हुये हैं। जिस आदमी को डर और भय नाम की चीज नहीं है, उसे

आप मजबूत नहीं समझते? और तो और, आम आदमी आमतौर पर एक ही

महिला से परेशान हो जाता है जबकि ये भला मानस घर में तो जो सहता है वो

सहता है, घर से बाहर भी दिनभर एक महिला के इशारों पर नाचता है फिर भी

आप उसे मजबूत नहीं कहते। अटल बिहारी वाजपेयी कुंवारे थे इसके बावजूद

उनके घुटने खराब हो गये थे, इस आदमी का सामर्थ्य तो देखो, शादीशुदा है

और इस उम्र में भी जनपथ पर उठक-बैठक लगाता है, लेकिन अभी तक

उसके घुटने सही सलामत हैं...बोलो...और कितना मजबूत प्रधानमन्त्री चाहिए ?



चारों तरफ मौत नाच रही है। गुजरात में हीरा कारीगरों के परिवार आत्महत्याएं

कर रहे हैं, महाराष्ट्र में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, बिहार में नक्सलवादी

हत्याएं कर रहे हैं, पूंजी बाज़ार की गिरावट न जाने कितनी जानें ले चुकी है,

उडीसा में अकाल और भुखमरी का ताण्डव हो रहा है और ऐसे में भी जो

प्रधानमन्त्री पब्लिक के आंसू पोंछने के बजाय मुद्रास्फीति में कमी पर खुश हो

रहा है और जीडीपी में वृद्घि बता-बताकर स्वयं ही अपनी पीठ ठोंक रहा है,

इतना मजबूत प्रधानमन्त्री मैंने तो आजतक नहीं देखा। भारत की क्या, पूरी

दुनिया में नहीं देखा। इसलिए मेरा मानना है कि देश का नेता मजबूत नहीं

चाहिए, अब तो जनता मजबूत चाहिए। नेता तो कमज़ोर ही चाहिए कमज़ोर

यानी कम-ज़ोर अर्थात जो पब्लिक पर ज़ोर कम करे, ज़ुल्म कम करे,

प्रधानमन्त्री ऐसा लाओ। कहीं ऐसा न हो, सरकार तो मजबूत बन जाए और

जनता निर्बल बनी रहे। प्लीज... जनता मजबूत बनाओ।

तालिबान ...हनुमान और 1751 किलो का लड्डू ..............

भगवान श्रीराम अत्यन्त व्याकुल दिखाई दे रहे थे। वे किसी गहन चिन्ता में डूबे

हुए, बेडरूम से ड्राइंग हॉल के बीच धीमे-धीमे चहल कदमी कर रहे थे। तभी

वहाँ धम-धम की पदचाप के साथ पवनपुत्र हनुमान धमके। उनके सिर पर

एक बड़ी सी टोकरी थी जिसे उन्होंने बड़ी मुश्किल से उतार कर भगवान श्रीराम

के समक्ष रखा और हाथ जोड़कर विनीत भाव से खड़े हो गए। 'क्या लाए हो

बजरंगी' श्रीराम ने पूछा। 'दाता, लड्डू लाया हूं, सूरत के श्रद्धालुओं ने मेरे बर्थ डे

पर प्रेजेन्ट किया है, यदि आप चट से भोग लगा लें तो मैं भी पट से प्रसाद ग्रहण

कर लूं, बड़ी भूख जग गई है इसकी स्वादिष्ट सुगन्ध पाकर' हनुमान ने कहा।

'लड्डू, ये लड्डू है, इतना बड़ा?' श्रीराम ने पूछा। 'हां प्रभु' हनुमत बोले,

'पूरे 1751 किलो का है वो भी असली घी का।' श्रीराम के अधरों पर व्यंग्यात्मक

मुस्कान उभर आई, 'क्यों मज़ाक करते हो। जिस देश में आजकल आँखों में

झोंकने की धूल के सिवाय असली कुछ भी नहीं मिलता वहां तुम्हें असली घी

मिल गया वो भी इस मन्दी के दौर में जबकि सेन्सेक्स 21000 से लुढक़ कर

सीधा 9000 पर चुका है।' 'वो मैं कुछ नहीं जानता प्रभु' हनुमान बोले,

' दलाल स्ट्रीट के दलाल जाने या स्टॉक एक्सचेंज के आगे खड़ा सांड जाने।

अपने पास तो ना कैपिटल है और ही कैपिटल मार्केट की समझ। यहां तो

ले दे के एक लड्डू है जिसका आप जल्दी से भोग लगा लो तो मैं भी जल्दी ने

निपटा लूं, नहीं तो पड़-पड़ा ही खराब हो जाएगा। देखो कितनी गर्मी पड़ रही है।'


'तो तुम खा लो' श्री राम बोले, 'मैं नहीं चखूंगा, मेरा मूड आज कुछ ठीक नहीं है।'

'मूड ठीक नहीं है। प्रभु का मूड ठीक नहीं है?' हनुमान ने हैरत से प्रभु को देखा।

'हां अन्जनी के लाल, मैं आज बहुत दुःखी हूं।' श्रीराम ने धीमे से कहा, 'दुःखी से

भी ज्यादा चिन्तित हूं। कुछ सम्पट नहीं पड़ रही है कि क्या करूं और क्या

करूं?' 'अपनी चिन्ता का कारण इस दास को बताएं दाता' हनुमान ने विनम्रता

पूर्वक कहा, 'कदाचित मैं कुछ समाधान कर सकूं..' 'अरे जब मुझसे कुछ करते

नहीं बन रहा है तो तुम क्या तीर मार लोगे हनुमान?' श्रीराम का स्वर रुआंसा

हो गया था। सुनकर हनुमान के नेत्र ऐसे भीग गए जैसे सोनिया के उदास

होने पर पीएम के भीग जाते हैं। वे सुबक़ते हुए बोले 'ऐसी भी क्या विपदा आन

पड़ी है प्रभो? क्या अमर सिंह ने मुलायम की धोती छोड़कर मायावती का

दुपट्टा थाम लिया? क्या जयललिता और उमा भारती ने देवगौड़ा के साथ

मिलकर पाँचवाँ मोर्चा बना लिया है? आखिर हुआ क्या, कुछ बोलो तो प्रभु।

' 'अरे यार, तालिबानी घुस आए है भारत में तालिबानी।' श्रीराम के स्वर में

का पुट था। 'क्या बात कर रहे हो प्रभु, आर यू कन्फर्म अबाउट दिस सनसनी?'

हनुमान ने अविश्र्वास प्रस्ताव रखने का प्रयास किया। 'देखते नहीं , सारे

चैनल चिल्ला चिल्ला कर बता रहे हैं कि 26 मार्च की रात लगभग 30

तालिबानी हत्यारे कश्मीर में घुसपैठ कर चुके हैं, कुछ एक तो दिल्ली के

पहुंच चुके हैं। सारी गुप्तचर एजेंसियां लगातार चेतावनी दे रही हैं। कभी भी

कोई वारदात हो सकती है। पूरा देश चिन्तातुर है लेकिन भारत के नेता

केवल कुर्सी के मोह में हैं। वोट के सिवा इन्हें कुछ दिखाई देता है और ही

सुनाई देता है। सब के सब प्रधानमंत्री बनने के लिए मुंह धो कर बैठे हैं। एक

भी पार्टी अथवा नेता ऐसा नहीं जिसने चुनाव प्रचार छोड़कर, देश बचाने की

बात की हो। सोचो हनुमत सोचो, चुनावी यज्ञ में यदि तालिबानी राक्षसों ने

रक्तपात किया तो कितना बड़ा नरसंहार हो सकता है..कुछ फिक्र है?

' रामजी ने एक ही सांस में इतना लंबा डायलॉग बोल दिया। 'आपकी

व्याकुलता वाजिब है दाता, किन्तु चिन्ता किस बात की?' हनुमान ने ढांढस

बंधाते हुए कहा, 'ये देश रघुकुल भूषण राम का देश है और राम त्रिलोकी के

श्रेष्ठतम धनुर्धर हैं जिन्होंने अपने शारंग धनुषबाण से समूची पृथ्वी के

राक्षसों का संहार किया है। उठाइए अपने बाण, कीजिए धनुष से सन्धान

और नाश कर दीजिए समूचे तालिबान का।' 'रोना तो इसी बात का है

हनुमान कि धनुष बाण इस वक्त मेरे पास नहीं है।' रामजी ने खेद पूर्वक कहा,

'आडवाणी जी 10 साल पहले ले गए थे रथयात्रा में, कह गए थे जल्दी लौटा

दूंगा, आज तक नहीं लौटाए, मेरे नाम पे वोट मांगते हैं और मुझसे ही

चीटिंग करते हैं।' 'जाने दो प्रभु, राजनीतिक व्यस्तता में ऐसी भूल हो जाती है,

' हनुमान ने मुस्कुराते हुए कहा 'आपके परम मित्र देवाधिदेव महादेवजी को

कॉल करके उनसे त्रिशूल ही मंगा लो आखिर वे किस दिन काम आएंगे।'

'मांगा था, मैंने त्रिशूल मांगा था लेकिन शिवजी ने भी हाथ खड़े कर दिए,

बोले मेरे सारे त्रिशूल तो तोगडि़या ले गए। मैं स्वयं निहत्था बैठा हूं' राम की

आवाज़ भर्रा गई। 'तब तो वाकई चिन्ता करनी होगी' हनुमान बोले, 'क्योंकि

मेरी गदा भी बजरंग दल वालों ने कहीं छिपा दी है।' 'इसीलिए मैं कहता हूं

केसरीनन्दन के ये समय लड्डू खाने का नहीं बल्कि भारत पर तरस खाने

का है 'रामजी बोले, 'बचालो.....बचालो मेरे देश को, अगर बचा सकते हो,

लड्डू का क्या है, ये तो अगले बर्थ डे पर भी खा सकते हो' कहकर भगवान

श्री राम अपने बेडरूम की ओर बढ़ गए। हनुमानजी ठगे से देखते रह गए

1751 किलो के लड्डू को, कभी उदास ड्राइंग रूम को और कभी अपनी

विवशता को। उनकी भूख मिट चुकी थी, उनका उत्साह मर चुका था।

उजले नेता काला धन .....स्विस बैंकों पर आ गया मन ...

चील की नज़र हमेशा मांस पर रहती है। यह एक पुरानी कहावत है लेकिन

आजकल चूंकि चीलें देखने को नहीं मिलतीं इसलिए मैंने इसका नवीन संस्करण

बना दिया है कि नेता की नज़र हमेशा पैसे पर रहती है। जिस प्रकार चीलें आकाश

में बहुत ऊंचाई पर उड़ते हुए भी ज़मीन पर पड़ा मांस का टुकड़ा देख लेती हैं और

झपट्टा मार कर ले उड़ती हैं इसी प्रकार हमारे भारत के नेताओं ने भी यहीं से

स्विस बैंकों में पड़ा रुपया देख लिया है।



कमाल की नज़र है हमारे नेताओं के पास। हज़ारों मील दूर पड़ा कालाधन भी देख

लेते हैं। ये अलग बात है कि इन्हें अपने देश में पड़ा माल दिखाई नहीं देता।

नामांकन पत्र भरते समय जब बड़े-बड़े महारथी नेता अपनी सम्पत्ति और रुपया

पैसा का ब्यौरा दे रहे थे तो पूरे देश के साथ-साथ मैं भी हैरान था, हैरान क्या

परेशान था कि ये क्या? इनके सारे रुपए पैसे कहां गए? जिनके पास हज़ारों

करोड़ होना चाहिए, वे एक-दो करोड़ पर कैसे गए? क्या भारत को चलाने

वाले दिग्गज नेता इतनी साधारण सी वेल्थ के स्वामी हैं? मेरा मन कहता है कि

रुपया तो है और स्विस बैंकों से भी कहीं ज़्यादा रुपया हमारे देश में है लेकिन

काला है ना, इसलिए दिखाई नहीं देता। उजले वस्त्रधारी हमारे कर्णधार इसमें

झांकना ही नहीं चाहते वे जानते हैं कि इस अन्धेरे में रखा कालाधन किसी और

का नहीं, अपना ही है या किसी अपने वाले का है। इसलिए निकल पड़े मजबूत

पक्के इरादे के साथ स्विस बैंक की ओर। इसके दो फ़ायदे हैं, एक तो अपना

धन सुरक्षित रहेगा, दूसरा जनता भी जय-जयकार करेगी कि देखो ये नेता

कितने महान हैं जो विदेशों में पड़ा काला धन देश में वापस लाने की बात करते

हैं। मैंने एक छुटभैये नेता से पूछा, क्या वाकई आप स्विस बैंकों में पड़ा काला

धन वापस भारत में लाएंगे। वो बोले, क्यों नहीं लाएंगे। मैंने पूछा, इसकी क्या

गारन्टी है, वो बोले, हमारा बचन ही गारन्टी है। हमने जो कह दिया सो कह दिया,

जो कह दिया उसे पूरा करेंगे। मैंने कहा, कहा तो आपने पहले भी बहुत कुछ है

लेकिन पूरा कुछ नहीं किया। एक बार आपने मन्दिर बनाने का वादा किया था।

वादा ही नहीं, दावा किया था कि हम सत्ता में गए भव्य मन्दिर का निर्माण

करेंगे लेकिन आपने नहीं किया उसके बाद आपने वादा किया था कि हम सत्ता

में गए तो मुंबई बम धमाकों के ज़िम्मेदार दाऊद इब्राहिम और उसके

साथियों को भारत लेकर आएंगे ओर उन्हें मृत्यु दण्ड देंगे। उसमें भी आप

असफल रहे।' मेरी बातें सुनकर उस नेता की त्यौरियां चढ़ गई। मैंने कहा,

' क्रोध मत कीजिए, जनता के लिए कुछ काम कीजिए ताकि जनता आपका

भरोसा कर सके और आपको अपना समर्थन दे सके। रही बात स्विस बैंकों से

कालाधन लाने की, तो वह आपको पाँच साल पहले करनी चाहिए थी ताकि

अब तक इस मुद्दे पर पूरा देश एक हो जाता और आपको चुनाव लड़ने का बड़ा

मंच बना बनाया मिल जाता। लेकिन यदि वाकई आप देशहित में सोचते हैं तो

पहले भारत में छुपा कालाधन निकलवाइए, भ्रष्ट अफसरशाहों राजनीतिकों

के नामी, बेनामी खाते खंगालिए और उन्हें निचोडि़ये, बहुत माल मिलेगा।'

उन्होंने मुझे खिसियानी नज़र से देखा तो मैंने ये शेर मारा-


सोने की कैंची लाओ कि मुन्सिफ़ के लब खुलें

क़ातिल ने होंठ सी दिए चाँदी के तार से

हाय रे ..... टी. एन. शेषन तूने ये क्या किया ?

टी. एन. शेषन को तो मैं कभी माफ़ नहीं करूंगा। किसी कीमत पर नहीं करूंगा।
इस जनम में तो क्या अगले जनम में भी नहीं करूंगा। भले ही उन्होंने पर्सनली
मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं और बिगाड़ सकते भी नहीं, क्योंकि बिगाड़ करने के लिए
परस्पर जान-पहचान, व्यवहार अथवा दोस्ती होना लाज़मी है जबकि वो तो
मुझे जानते तक नहीं। अब एक अजनबी दूसरे अजनबी का क्या बिगाड़ अथवा
उखाड़ सकता है? इतिहास साक्षी है, जब भी कुछ बिगाड़ा है, किसी सुपरिचित ने
ही बिगाड़ा है, अपरिचित को तो इतनी फ़ुर्सत ही कहां जो वह स्वयं का समय
खराब करके हमारा बिगाड़ करने आये। लेकिन यहां मैं अपना रोना नहीं रो रहा
हूं, देश की बात कर रहा हूं और देश का बहुत बड़ा नुकसान श्रीमान टी. एन. शेषन
ने किया है, ये बात मैं छाती पीट-पीटकर कह सकता हूं।

याद करो वो दिन.... जब चुनाव हमारे यहां राष्ट्रीय उत्सव की तरह आया करते थे।
पूरे माहौल में एक खिलखिलाहट और उत्साह की तरंगे लहराया करती थी। यों
लगता था मानो दीपावली, ईद, बैसाखी और क्रिसमस एक साथ, एक दिन ही आ
गये हों। क्या महिलाएं क्या पुरुष सबको लगता था कि अब कुछ बदलाव होगा
और देश का भला होगा। शहरों के शहर, गांवों के गांव, यहां तक कि छोटी-छोटी
ढाणियां भी लाउड स्पीकर पर पूरे लोड के साथ ऐसे-ऐसे देशभक्ति गीत गुंजाते थे
कि दुश्मन देश की चूलें हिल जाती थी। घर-घर, गली-गली और चौराहे-चौराहे
पर विभिन्न पार्टियों के झण्डे-झंडियाँ बैनर और पोस्टर के साथ-साथ नई की नई
दीवारों पर काले रंग या नीले रंग से लिखे गये नारे बच्चों का मन मोह लेते थे और
छोटे-छोटे बच्चे भी पार्टियों के बिल्ले और बैच अपनी कमीज की जेब पर टांक कर
नेतागिरी किया करते थे। कोई चिल्लाता था, 'जात पर न पात पर, मुहर लगाओ
हाथ पर', कोई कहता, 'कांग्रेस आई धोखा है, धक्का मारो मौका है'! मैं खुद
चिल्लाया करता था, 'इन्दिराजी की अन्तिम इच्छा-राधेश्याम चलाए रिक्शा'

लेकिन अफ़सोस! न अब वो झण्डे-झंडियाँ हैं, न नारे हैं, न स्पीकर हैं, न ही गाने
हैं। यूं लगता है मानो चुनाव लोकतन्त्र का महापर्व नहीं बल्कि मातम के रूप में
मनाया जा रहा है। और ये सब उसी सनकी बन्दे टी. एन. शेषन का किया धरा
है जिसने इस सब पर पाबन्दी लगा दी।

अरे भाई ये भारत है यहां का राजनीतिक व्यक्ति पांच साल तक पब्लिक को सिर्फ़
इसलिए लूटता है ताकि आने वाले चुनाव में वो खुलकर खर्च कर सके। अब तुम
उसे खर्च करने ही नहीं दोगे तो बेचारा उन रूपयों - सॉरी काले रूपयों का करेगा
क्या? घर में रखेगा तो चोर चुरा सकते हैं या आयकर वाले ऐंठ सकते हैं, बैंक में
डाल नहीं सकता। मजबूर होकर बेचारे को देशद्रोही बनना पड़ता है और देश का
काला धन विदेशी बैंकों में जमा कराना पड़ता है।

सबसे ज़्यादा मार तो पड़ी है बेचारे आम आदमी पर जो कि चुनाव के समय चाँदी
में खेला करता था। क्योंकि ख़ूब जीपें दौड़ती थी। जीपें दौड़ती थी तो जीप वाले को
भाड़ा मिलता था, ड्राइवर को काम मिलता था, उनके खराब होने पर मैकेनिक
और पंचर वाले को काम मिलता था, दुर्घटना होने पर डाक्टर को काम मिलता
था। इसी प्रकार बैनर व झण्डों के लिए कपड़ा बिकता था, रंग बिकते थे, डंडे
बिकते थे, धागे बिकते थे तथा दर्जी और पेंटर को काम मिलता था। पोस्टर छपते
थे तो कागज़ बिकता था, स्याही बिकती थी और प्रिन्टिंग प्रेस वालों को काम
मिलता था। बैच और बिल्ले बनाने वालों को, ढोल और ताशा बजाने वालों को,

ज़िन्दाबाद का नारा लगाने वालों को, दारू पीने-पिलाने वालों को, ढाबे और
भोजनालय वालों को भरपूर काम मिलता था और काम का कई गुना पैसा मिलता
था । कुछ मिलाकर परोक्ष और अपरोक्ष रूप से सभाओं के लिए वक्ता, साउण्ड
सिस्टम और कलाकार मंडलियां सब बुक हो जाते थे। लेकिन आज ऐसा कुछ भी
नहीं रहा। लगता ही नहीं कि भारत जैसे बड़े देश का सबसे बड़ा चुनाव हो रहा है।
अरे इससे ज्यादा हन्गामा तो ट्रक युनियन के अध्यक्ष के चुनाव में हो जाया
करता था।

मिस्टर शेषन! तुमने ऐसी वाट लगाई है चुनाव की कि चुनाव को स्वयं विश्वास
नहीं हो रहा कि वह भारत में हो रहा है जिन लोगों की रोजी-रोटी तुमने छीनी है
उनकी बददुआ कभी खाली नहीं जाएगी। ये उन बददुआओं का ही परिणाम है कि
तुम घर बैठे हो, तुम्हारे टाइम में दस्यु रानी फूलन देवी जीत गयी थी और तुम
हार गये थे, याद है न!


काश! कोई ऐसा चुनाव आयुक्त आये जो इन सब पाबन्दियों को हटा दे ताकि
चुनाव फिर से उत्सव बन जाए और मेरे देश का आम आदमी इसका कुछ लाभ
उठा पाये! अरे भाई कोई है?




जय हिन्द !
-अलबेला खत्री

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