जब सावन आग लगाता है,
जब सावन आग लगाता है
वज्र टूटते हैं छाती पर, सांसों पर बन आती है
चुपके चुपके ख़ून के आँसू आँखें रोज़ बहाती हैं
अरमानों के फूल भी काँटे बन जाते उन लम्हों में
विरहन को जब परदेसी सजना की सुधि सताती है
दुनिया का सारा चन्दन भी
जलन मिटा नहीं पाता है
जब सावन आग लगाता है,
जब सावन आग लगाता है
तड़प तड़प कर जागा करते, सुलग सुलग कर सोते हैं
सुबक सुबक कर, सिसक सिसक कर, फूट फूट कर रोते हैं
लिपट लिपट कर रह जाते हैं अपनी ही परछाई से
तन्हाई के शोक पर्व में दामन ख़ूब भिगोते हैं
अंग अंग अंगारा बन कर
तृषित देह दहकाता है
जब सावन आग लगाता है,
जब सावन आग लगाता है
घर तो घर, बाहर भी पग पग पर पीड़ा का अनुभव है
सूनापन ही सूनापन है, न झूला न कलरव है
अंतर्व्यथा कथा लम्बी है, कौन सुनेगा "अलबेला"
तिनका तिनका बिखर रहा, सपनों का हर इक अवयव है
भंवरों का गुनगुन भी बैरी
दिन भर जान जलाता है
जब सावन आग लगाता है,
जब सावन आग लगाता है
- अलबेला खत्री
1 comments:
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (11-08-2013) के चर्चा मंच 1334 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
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