मैं आज अपना सीना ठोक के कहता हूं कि मैं भारत गणतंत्र का नागरिक हूं। नागरिक इसलिए हूं क्योंकि नगर में रहता हूं और सीना इसलिए ठोक रहा हूं क्यूंकि एक तो इससे वक्ता की बात में वजन आ जाता है, दूसरे सीना भी अपना है और ठोकने वाले भी अपन ही हैं इसलिए किसी दूसरे की आचार संहिता भंग होने का डर नहीं है। हालांकि मैं सीने के बजाय पीठ भी ठोक सकता हूं, लेकिन ठोकूंगा नहीं, क्यूंकि एक तो वहां तक मेरा हाथ ठीक से नहीं पहुंचता, दूसरे ज्यादा ठुकाई होने से पीठ में दर्द हो सकता है और तीसरे मैं एक कलाकार हूं यार, कोई नेता थोड़े न हूं जो अपने ही हाथों अपनी पीठ ठोकता रहूं।
सरकारी और गैर सरकारी सूत्र मुझे आम आदमी कह कर चिढ़ाते हैं जबकि मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मैं कोई आम-वाम नहीं हूं। आम क्या, आलू बुखारा भी नहीं हूं, हां चाहो तो आलू समझ सकते हो क्योंकि एक तो मैं जमीन से जुड़ा हुआ हूं। दूसरे मेरी खाल इतनी पतली है कि कोई भी उधेड़ सकता है, तीसरे गरीब से गरीब और अमीर से अमीर, सभी मुझे एन्जॉय कर सकते हैं और चौथे हर मौसम में, हर हाल में सेवा के लिए मैं उपलब्ध रहता हूं। न मुझे गर्मी मार सकती है न सर्दी, लेकिन मुझे आलू नहीं, आम कहा जाता है और इसलिए आम कहा जाता है ताकि मेरे रक्त को रस की तरह पिया जा सके। हालांकि ये रक्त पिपासु भी कोई बाहर वाले नहीं हैं, अपने ही हैं, बाहर वाले तो जितना पी सकते थे, पीकर पतली गली से निकल लिए, अब अपने वाले बचाखुचा सुड़कने में लगे हैं। मजे की बात ये है कि बाहर वाले तो कुछ छोड़ भी गए, अपने वाले पठ्ठे तो एक-एक बून्द निचोड़ लेने की जुगत में है।
कल रात एक भूतपूर्व सांसद से मुलाकात हो गई। हालांकि वे भूतपूर्व होना नहीं चाहते थे लेकिन होना पड़ा क्योंकि भूतकाल में उन्होंने एक अभूतपूर्व काम कर किया था। (लोगों से रुपया लेकर संसद में सवाल पूछने का) जिसके चलते वे एक स्टिंग आप्रेशन की चपेट में आ गए और भूत हो गए। मैंने पूछा, 'भूतनाथजी, ये नेता लोग जनता को आम जनता क्यों कहते हैं? वो बोले, वैसे तो बहुत से कारण हैं लेकिन मोटा-मोटी यूं समझो कि आम जो है, वो फलों का राजा है और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता ही असली राजा होती है, शासक तो बेचारा सेवक होता है। दूसरा कारण ये है कि आम का सीजन, आम चुनाव की तरह कुछ ही दिन चलता है, बाकी समय तो बेचारा लापता ही रहता है, लेकिन तीसरा और सबसे खास कारण ये है कि आम स्वादिष्ट बहुत होता है। इसे खाने में मजा बहुत आता है, चाहे किसी प्रान्त का हो, किसी जात का हो, किसी रंग का हो अथवा किसी भी साइज का हो।
आम के आम और गुठलियों के दाम तो आपने सुना ही होगा, जनता को आम कहने का एक कारण ये भी है कि इसे खाने में कोई खतरा नहीं क्यूंकि न तो इनमें कीड़े पड़ते है, न इसकी गुठली में कांटे होते हैं और न ही इनसे अजीर्ण होता है, अरे भाई आम तो ऐसी चीज है कि लंगड़ा हो, तो भी चलता है। मैंने कहा, नेताजी आप एक बात तो बताना भूल ही गए कि आम हर उम्र में उपयोगी होता है।
कच्चा हो तो अचार डालने के काम आता है, पका हुआ रसीला हो तो काट-काट के खाया जा सकता है और बूढ़ा, कमजोर व पिलपिला हो तो चूसने के काम आता है लेकिन सावधान नेताजी..अब आदमी को आम कहना छोड़ दो, क्योंकि वो अब आम से खास हो गया है। विद्रोह की परीक्षा में पास हो गया है। जिस दिन कोई ढंग का बन्दा नेतृत्व के लिए आगे आ जाएगा उस दिन आप जैसे स्वार्थी, मक्कार और दुष्ट नेताओं का राजनीतिक कार्यक्रम, किरिया क्रम में बदल जाएगा। इसलिए सुधर जाओ, अब भी मौका है।
उसने मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा। मैंने कहा, घूरते क्या हो? समय बदल चुका है। जिस जनता को तुम पांव की जूती समझते थे वो अब जूते चलाना सीख गई है। इससे पहले कि हर आदमी अपने हाथ में जूता ले ले, तुम लाईन पर आ जाओ वरना ऐसी ऑफ लाइन पर डाल दिए जाओगे जहां से आगे कोई रास्ता नहीं होगा आपके पास। विश्र्वास नहीं होता तो जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को ही देख लो जो अब घर बैठ गए हैं। नेताजी मेरी बातों से उखड़ गए और चलते बने। मैं भी अपने काम में व्यस्त हो गया, लेकिन मेरे मन में एक विजेता जैसी सन्तुष्टि है। मैंने सिद्ध कर दिया कि मैं कोई आम नहीं हूं।
सरकारी और गैर सरकारी सूत्र मुझे आम आदमी कह कर चिढ़ाते हैं जबकि मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मैं कोई आम-वाम नहीं हूं। आम क्या, आलू बुखारा भी नहीं हूं, हां चाहो तो आलू समझ सकते हो क्योंकि एक तो मैं जमीन से जुड़ा हुआ हूं। दूसरे मेरी खाल इतनी पतली है कि कोई भी उधेड़ सकता है, तीसरे गरीब से गरीब और अमीर से अमीर, सभी मुझे एन्जॉय कर सकते हैं और चौथे हर मौसम में, हर हाल में सेवा के लिए मैं उपलब्ध रहता हूं। न मुझे गर्मी मार सकती है न सर्दी, लेकिन मुझे आलू नहीं, आम कहा जाता है और इसलिए आम कहा जाता है ताकि मेरे रक्त को रस की तरह पिया जा सके। हालांकि ये रक्त पिपासु भी कोई बाहर वाले नहीं हैं, अपने ही हैं, बाहर वाले तो जितना पी सकते थे, पीकर पतली गली से निकल लिए, अब अपने वाले बचाखुचा सुड़कने में लगे हैं। मजे की बात ये है कि बाहर वाले तो कुछ छोड़ भी गए, अपने वाले पठ्ठे तो एक-एक बून्द निचोड़ लेने की जुगत में है।
कल रात एक भूतपूर्व सांसद से मुलाकात हो गई। हालांकि वे भूतपूर्व होना नहीं चाहते थे लेकिन होना पड़ा क्योंकि भूतकाल में उन्होंने एक अभूतपूर्व काम कर किया था। (लोगों से रुपया लेकर संसद में सवाल पूछने का) जिसके चलते वे एक स्टिंग आप्रेशन की चपेट में आ गए और भूत हो गए। मैंने पूछा, 'भूतनाथजी, ये नेता लोग जनता को आम जनता क्यों कहते हैं? वो बोले, वैसे तो बहुत से कारण हैं लेकिन मोटा-मोटी यूं समझो कि आम जो है, वो फलों का राजा है और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता ही असली राजा होती है, शासक तो बेचारा सेवक होता है। दूसरा कारण ये है कि आम का सीजन, आम चुनाव की तरह कुछ ही दिन चलता है, बाकी समय तो बेचारा लापता ही रहता है, लेकिन तीसरा और सबसे खास कारण ये है कि आम स्वादिष्ट बहुत होता है। इसे खाने में मजा बहुत आता है, चाहे किसी प्रान्त का हो, किसी जात का हो, किसी रंग का हो अथवा किसी भी साइज का हो।
आम के आम और गुठलियों के दाम तो आपने सुना ही होगा, जनता को आम कहने का एक कारण ये भी है कि इसे खाने में कोई खतरा नहीं क्यूंकि न तो इनमें कीड़े पड़ते है, न इसकी गुठली में कांटे होते हैं और न ही इनसे अजीर्ण होता है, अरे भाई आम तो ऐसी चीज है कि लंगड़ा हो, तो भी चलता है। मैंने कहा, नेताजी आप एक बात तो बताना भूल ही गए कि आम हर उम्र में उपयोगी होता है।
कच्चा हो तो अचार डालने के काम आता है, पका हुआ रसीला हो तो काट-काट के खाया जा सकता है और बूढ़ा, कमजोर व पिलपिला हो तो चूसने के काम आता है लेकिन सावधान नेताजी..अब आदमी को आम कहना छोड़ दो, क्योंकि वो अब आम से खास हो गया है। विद्रोह की परीक्षा में पास हो गया है। जिस दिन कोई ढंग का बन्दा नेतृत्व के लिए आगे आ जाएगा उस दिन आप जैसे स्वार्थी, मक्कार और दुष्ट नेताओं का राजनीतिक कार्यक्रम, किरिया क्रम में बदल जाएगा। इसलिए सुधर जाओ, अब भी मौका है।
उसने मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा। मैंने कहा, घूरते क्या हो? समय बदल चुका है। जिस जनता को तुम पांव की जूती समझते थे वो अब जूते चलाना सीख गई है। इससे पहले कि हर आदमी अपने हाथ में जूता ले ले, तुम लाईन पर आ जाओ वरना ऐसी ऑफ लाइन पर डाल दिए जाओगे जहां से आगे कोई रास्ता नहीं होगा आपके पास। विश्र्वास नहीं होता तो जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को ही देख लो जो अब घर बैठ गए हैं। नेताजी मेरी बातों से उखड़ गए और चलते बने। मैं भी अपने काम में व्यस्त हो गया, लेकिन मेरे मन में एक विजेता जैसी सन्तुष्टि है। मैंने सिद्ध कर दिया कि मैं कोई आम नहीं हूं।
6 comments:
अच्छा लिखा है आपने। बधाई।
लेख पढ़कर खुद की लिखी एक लेख की याद आ गयी। कुछ पँक्तियाँ शीर्षक सहित पेश है-
"आम आदमी और बाढ़ का सुख"
शीर्षक की सार्थकता रखते हुए पहले "आम आदमी" की बात कर लें। आम एक स्वादिष्ट, मँहगा और मौसमी फल है, जिसकी आमद बाढ़ की तरह साल में एक ही बार होती है। मजे की बात है कि आम चाहे जितना भी कीमती क्यों न हो, अगर वह किसी भी शब्द के साथ जुड़ जाता है तो उसका भाव गिरा देता है। मसलन- आम आदमी, आम बात, आम घटना, दरबारे आम, आम चुनाव इत्यादि। अंततः हम सभी "आम आदमी" की भौतिक उपस्थिति और उनको मिलने वाले "पंचबर्षीय सम्मान" से पूर्णतः अवगत हैं।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में हार्दिक स्वागत है. आपके नियमित लेखन के लिए अनेक शुभकामनाऐं.
एक निवेदन:
कृप्या वर्ड वेरीफीकेशन हटा लें ताकि टिप्पणी देने में सहूलियत हो. मात्र एक निवेदन है बाकि आपकी इच्छा.
वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:डैशबोर्ड>सेटिंग्स>कमेन्टस>Show word verification for comments?> इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..कितना सरल है न हटाना और उतना ही मुश्किल-इसे भरना!! यकीन मानिये!!.
आप को मेरा ब्लॉग कैसे मिला?
जहाँ से मिला कृपया उसकी लिंक भेजिए.
वाह... वाह.... व्यंग्यालेख के लिये बधाई स्वीकारें
badhai svikar karein
bahut accha laga
suman
loksangharsha.blogspot.com
bahut badhiya laga
badhai svikar karein
suman
loksangharsha.blogspot.com
Post a Comment