वैसे तो मैंने अनेक अवसरों पर दैविक चमत्कारों का अनुभव किया है
परन्तु 06-11-2011 की शाम राजस्थान के केलवा में जैन आचार्य
श्री महाश्रमणजी के चातुर्मास उपलक्ष्य में आयोजित कवि-सम्मेलन से पूर्व
जब मैं उनसे मिलने गया तो पहली ही मुलाकात में उनके दिव्य रूप का
दीवाना हो गया . मुखमंडल अलौकिक तेज़स्विता और अधरों पर चित्ताकर्षक
मुस्कान बरबस ही मुझे प्रेरित कर रही थी कि मैं उस महान सन्त के चरणों में
झुक जाऊं और उनके स्पर्श को प्राप्त करने का प्रयास करूँ परन्तु नज़रें थीं कि
हटाये नहीं हट रही थीं उनकी नज़रों से.........फिर उन्होंने दोनों हाथ उठा कर
जब यशश्वी होने का आशीर्वाद दिया तो मैं धन्य ही हो गया ...........कवि-सम्मेलन
हो गया, बढ़िया हो गया . हरिओम पंवार, नरेन्द्र बंजारा, गोविन्द राठी और मैंने
ठीक-ठाक काम कर दिया . सब लोग चले गये ...मैं सो गया लेकिन एक घंटे बाद
ही जैसे किसी ने मुझे झकझोर कर उठा दिया...कहा - उठ ! तेरे सोने के दिन
लद गये...अब जागृत होकर......धर्मसंघ की सेवा कर ! आँख खुली...तो वहां कमरे में
कोई नहीं था फिर भी जाने क्यों मन में ऐसा एहसास हो रहा था कि कोई है
.................कहीं ये वो ही तो नहीं.......................हो भी सकता है ये मेरा भ्रम हो,
लेकिन यदि सच है तो फिर मेरे अहोभाग्य हैं .
जय हिन्द !
2 comments:
आपके साथ धन्य हो गये हम भी!
सच जब कोई कार्य सफल होता है तो मन की ख़ुशी को कोई ठिकाना नहीं रहता ..जैन आचार्य जी का आपको आशीर्वाद मिला, इससे बड़ी और क्या ख़ुशी होगी..
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