न तो जीना सरल है न मरना सरल
आ लिखें ऐसे परिवेश में हम ग़ज़ल
कल नयी दिल्ली स्टेशन पे दो जन मरे
रेलवे ने बताया कि ज़बरन मरे
अब मरे दो या चाहे दो दर्जन मरे
ममतामाई की आँखों में आये न जल
आ लिखें ऐसे परिवेश में हम ग़ज़ल
तप रहा है गगन, तप रही है धरा
हर कोई कह रहा मैं मरा, मैं मरा
प्यास पंछी की कोई बुझादे ज़रा
चोंच से ज़्यादा सूखे हैं बस्ती के नल
आ लिखें ऐसे परिवेश में हम ग़ज़ल
एक अफज़ल गुरू ही नहीं है जनाब
जेलों पर है हज़ारों दरिन्दों का दाब
ख़ूब खाते हैं बिरयानी, पी पी शराब
हँस रहे हैं कसाब, रो रहे उज्ज्वल
आ लिखें ऐसे परिवेश में हम ग़ज़ल
कुर्सी के कागलों ने जहाँ चोंच डाली
देह जनता की पूरी वहां नोंच डाली
सत्य अहिंसा की शब्दावली पोंछ डाली
मखमलों पे मले जा रहे अपना मल
आ लिखें ऐसे परिवेश में हम ग़ज़ल
- अलबेला खत्री
4 comments:
ऐसे परिवेश में कोई कैसे लिख सकता है कोई गजल .... मगर आपकी इन पक्तियों से वर्तमान कि वास्तविकता का बोध हो रहा है सार्थक प्रस्तुति ....आभार ...
आपकी पोस्ट की खबर हमने ली है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - एक गरम चाय की प्याली हो ... संग ब्लॉग बुलेटिन निराली हो ...
बहुत सुन्दर सृजन!
Gehri chot karti saarthak rachna...
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