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तरही मुशायरा में प्रस्तुत मेरी ताज़ा ग़ज़ल
अश्क़ आँखों से निकला, रवाना हुआ
दर्दे-दिल का मुकम्मल तराना हुआ
ज़ुल्फ़ उसने जो खोली, घटा छा गई
मुस्कुराई तो मौसम सुहाना हुआ
हुस्न दुख्तर पे जब से है आने लगा
हाय दुश्मन ये सारा ज़माना हुआ
तब से दुनिया हमारी बड़ी हो गई
जब से गैरों के घर आना जाना हुआ
चल पड़ा हूँ ठिकाना नया खोजने
ख़त्म अपना यहाँ आबोदाना हुआ
ज़ख्म हमदर्दियों से न भर पाएंगे
फैंक दो अब ये मरहम पुराना हुआ
झाड़ डाला है झाड़ू ने ऐसा उन्हें
आबरू उनको मुश्किल बचाना हुआ
रूह प्यासी थी 'अलबेला' प्यासी रही
जिस्म का सारा पीना पिलाना हुआ
-अलबेला खत्री
3 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (28-12-13) को "जिन पे असर नहीं होता" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1475 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
क्या बात वाह! अति सुन्दर
तीन संजीदा एहसास
सुन्दर ग़ज़ल
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