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Albela Khatri

ये देश है गड़बड़झालों का, घोटाले पर घोटालों का



फ़िल्म : नया दौर

तर्ज़ : ये देश है वीर जवानों का


ये देश है गड़बड़झालों का,

घोटाले पर घोटालों का


इस देश का यारो क्या कहना

बेहतर होगा चुप ही रहना


आसाम जला, बंगाल जला, गुजरात जला, पंजाब जला

जम्मू में गोली चलती है

कश्मीर में आग मचलती है


कभी बम फटते हैं रेलों में, कभी विष मिलता है तेलों में

यहाँ नित नित दंगे होते हैं

और लीडर नंगे होते हैं


पहले ही कर्ज़ेदार हैं हम, पर पाने को तैयार हैं हम

यदि पकड़ कटोरा डट जाएँ

मुश्किल है कि पीछे हट जाएँ


जब जंग के बादल छाएंगे, बारूद चलाये जायेंगे

ये किन्नर काम आयेंगे

सब घर अपने भग जायेंगे


ये सत्ता के भूखे नेता

क्या खा कर देश बचायेंगे

जिस जनता को तुम पांव की जूती समझते थे वो अब जूते चलाना सीख गई है नेताजी.....

मैं आज अपना सीना ठोक के कहता हूं कि मैं भारत गणतंत्र का नागरिक हूं।

नागरिक इसलिए हूं क्योंकि नगर में रहता हूं और सीना इसलिए ठोक रहा हूं

क्यूंकि एक तो इससे वक्ता की बात में वज़न आ जाता है, दूसरे सीना भी अपना

है और ठोकने वाले भी अपन ही हैं इसलिए किसी दूसरे की आचार संहिता भंग

होने का डर नहीं है। हालांकि मैं सीने के बजाय पीठ भी ठोक सकता हूं, लेकिन

ठोकूंगा नहीं, क्यूंकि एक तो वहां तक मेरा हाथ ठीक से नहीं पहुंचता, दूसरे

ज्य़ादा ठुकाई होने से पीठ में दर्द हो सकता है और तीसरे मैं एक कलाकार हूं

यार, कोई नेता थोड़े न हूं जो अपने ही हाथों अपनी पीठ ठोकता रहूं।


सरकारी और गैर सरकारी सूत्र मुझे आम आदमी कह कर चिढ़ाते हैं जबकि

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मैं कोई आम-वाम नहीं हूं। आम क्या,

आलू बुखारा भी नहीं हूं, हां चाहो तो आलू समझ सकते हो क्योंकि एक तो

मैं ज़मीन से जुड़ा हुआ हूं। दूसरे मेरी खाल इतनी पतली है कि कोई भी उधेड़

सकता है, तीसरे गरीब से गरीब और अमीर से अमीर, सभी मुझे एन्जॉय कर

सकते हैं और चौथे हर मौसम में, हर हाल में सेवा के लिए मैं उपलब्ध रहता

हूं। न मुझे गर्मी मार सकती है न सर्दी, लेकिन मुझे आलू नहीं, आम कहा जाता

है और इसलिए आम कहा जाता है ताकि मेरे रक्त को रस की तरह पिया जा

सके। हालांकि ये रक्त पिपासु भी कोई बाहर वाले नहीं हैं, अपने ही हैं, बाहर वाले

तो जितना पी सकते थे, पीकर पतली गली से निकल लिए, अब अपने वाले

बचाखुचा सुड़कने में लगे हैं। मज़े की बात ये है कि बाहर वाले तो कुछ छोड़ भी

गए, अपने वाले पठ्ठे तो एक-एक बून्द निचोड़ लेने की जुगत में है।


कल रात एक भूतपूर्व सांसद से मुलाकात हो गई। हालांकि वे भूतपूर्व होना नहीं

चाहते थे लेकिन होना पड़ा क्योंकि भूतकाल में उन्होंने एक अभूतपूर्व काम

किया था। (लोगों से रुपया लेकर संसद में सवाल पूछने का) जिसके चलते वे

एक स्टिंग आप्रेशन की चपेट में आ गए और भूत हो गए। मैंने पूछा,

'भूतनाथजी, ये नेता लोग जनता को आम जनता क्यों कहते हैं? वो बोले, वैसे

तो बहुत से कारण हैं लेकिन मोटा-मोटी यूं समझो कि आम जो है, वो फलों

का राजा है और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता ही असली राजा होती

है, शासक तो बेचारा सेवक होता है। दूसरा कारण ये है कि आम का सीजन,

आम चुनाव की तरह कुछ ही दिन चलता है, बाकी समय तो बेचारा लापता

ही रहता है, लेकिन तीसरा और सबसे खास कारण ये है कि आम स्वादिष्ट

बहुत होता है। इसे खाने में मज़ा बहुत आता है, चाहे किसी प्रान्त का हो,

किसी जात का हो, किसी रंग का हो अथवा किसी भी साइज का हो।



आम के आम और गुठलियों के दाम तो आपने सुना ही होगा, जनता को

आम कहने का एक कारण ये भी है कि इसे खाने में कोई खतरा नहीं क्यूंकि

न तो इनमें कीड़े पड़ते है, न इसकी गुठली में कांटे होते हैं और न ही इनसे

अजीर्ण होता है, अरे भाई आम तो ऐसी चीज है कि लंगड़ा हो, तो भी चलता

है। मैंने कहा, नेताजी आप एक बात तो बताना भूल ही गए कि आम हर उम्र

में उपयोगी होता है।


कच्चा हो तो अचार डालने के काम आता है, पका हुआ रसीला हो तो

काट-काट के खाया जा सकता है और बूढ़ा, कमज़ोर व पिलपिला हो तो

चूसने के काम आता है लेकिन सावधान नेताजी..अब आदमी को आम

कहना छोड़ दो, क्योंकि वो अब आम से ख़ास हो गया है। विद्रोह की परीक्षा

में पास हो गया है। जिस दिन कोई ढंग का बन्दा नेतृत्व के लिए आगे आ

जाएगा उस दिन आप जैसे स्वार्थी, मक्कार और दुष्ट नेताओं का राजनीतिक

कार्यक्रम, किरिया क्रम में बदल जाएगा। इसलिए सुधर जाओ, अब भी मौका

है।


उसने मुझे खा जाने वाली नज़रों से घूरा। मैंने कहा, घूरते क्या हो? समय बदल

चुका है। जिस जनता को तुम पांव की जूती समझते थे वो अब जूते चलाना

सीख गई है। इससे पहले कि हर आदमी अपने हाथ में जूता ले ले, तुम लाईन

पर आ जाओ वरना ऐसी ऑफ लाइन पर डाल दिए जाओगे जहां से आगे कोई

रास्ता नहीं होगा आपके पास। विश्वास नहीं होता तो जगदीश टाइटलर और

सज्जन कुमार को ही देख लो जो अब घर बैठ गए हैं। नेताजी मेरी बातों से

उखड़ गए और चलते बने। मैं भी अपने काम में व्यस्त हो गया, लेकिन मेरे

मन में एक विजेता जैसी सन्तुष्टि है। मैंने सिद्ध कर दिया कि मैं कोई आम

नहीं हूं।

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ये तो सोनिया समझती है या मनमोहन समझता है




कोई परधान कहता है, कोई पीएम समझता है

असल में क्या है ये तो बस उसी का मन समझता है

वो उस के साथ कैसी है, वो उस के साथ कैसा है

ये तो सोनिया समझती है या मनमोहन समझता है


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पूज्य सन्त शिरोमणि श्री तरुण सागर जी, गरीब कवि अलबेला खत्री के विनम्र निवेदन पर ध्यान दीजिये प्लीज़

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पूज्य
सन्त एवं समाज सुधारक श्रीमान तरुण सागर जी,

जय हिन्द !


शायद आपको याद हो, आज से कोई 7 वर्ष पूर्व सूरत के सिटी लाइट में

श्रीमान बांठिया जी के बंगले पर आप से मेरी भेन्ट हुई थी । समाजसेवी पत्रकार

श्री गणपत भंसाली जी के कहने पर मैं आपसे मिलने और आपके श्रोताओं को

नवकार महामंत्र पर रचित मेरा प्रख्यात गीत सुनाने गया था । वहां आप भी थे,

आपके शिष्य भी थे और अनेक भक्तजन भी थे। मैंने वहां नवकार महामंत्र वाला

गीत तो सुनाया ही जनता की डिमाण्ड पर अपनी विशेष कविता

"जीवन एक क्रिकेट है "

भी पढ़ी जिसे लोगों के साथ साथ आपने भी ख़ूब सराहा था ।


कार्यक्रम के बाद आपने अपनी एक पुस्तक "कड़वे वचन " मुझे प्रदान की थी

और "जीवन एक क्रिकेट है" कविता मुझसे लिखित में चाही थी । सो मैंने

अपनी एक पुस्तक "सागर में भी सूखा है मन" आपको भेन्ट कर दी थी

जिसमे उक्त कविता प्रकाशित है । यहाँ तक मुझे कोई परेशानी नहीं । मेरी

परेशानी उस दिन शुरू हुई जब कवि-सम्मेलन में मेरी इस कविता को

सुन कर लोग कहने लगे कि ये तो तरुण सागर जी की कविता है .



मैं समझ नहीं पाता था कि लोग ऐसा क्यों कह रहे हैं । तब लोगों ने

बताया कि ये कविता हू बहू ऐसे ही तरुण सागरजी भी सुनाते हैं । मुझे

व्यावसायिक तकलीफ़ हुई लेकिन आत्मिक प्रसन्नता हुई कि किसी

सन्त ने मेरी कविता को इस लायक तो समझा .........सो मैंने इसे बर्दाश्त

कर लिया ।


परन्तु अभी आठ अप्रेल को हिन्दी दैनिक भास्कर के सभी संस्करणों में

जब यह कविता आपके हवाले से छपी तो मेरे दुःख और क्रोध का कोई

ठिकाना नहीं रहा । क्योंकि मेरी कविता मुझे मेरे बच्चे जैसी प्रिय है

और मैं कतई सहन नहीं करूँगा कि मेरे बच्चों का बाप कोई और कहलाये ।

इसलिए एक अन्य कवि कुमार विश्वास पर लिखते हुए मैंने इस

घटना का ज़िक्र करते हुए आप पर भी कुछ कड़वे वचन लिख दिए थे ताकि

आपकी ओर से कोई स्पष्टीकरण मिले, परन्तु अभी तक आपकी ओर से कोई

उत्तर नहीं आया है इसलिए आज विनम्र निवेदन करता हूँ कि कृपया मुझ

पर दया कीजिये और इस कविता को अपने प्रवचनों में सुनाना या तो बन्द

कर दीजिये या ये कह कर सुनाइये कि ये कविता सूरत निवासी हास्य कवि

अलबेला खत्री की है । मेरा नाम लेने से आपका कुछ घिस नहीं जायेगा जबकि

नहीं लेंगे तो आप पर कविता की चोरी का पाप लगेगा और अचौर्य तो जैन

धर्म का अभिन्न अंग है ये मुझे बताने की ज़रूरत नहीं आप स्वयं जानते हैं ।



सन्त शिरोमणि जी,

मैं एक व्यावसायिक कवि हूँ , कविता मेरी रोज़ी रोटी है और किसी की रोज़ी

रोटी पर चोट पहुँचाना एक सन्त के लिए शोभा नहीं देती । ओशो रजनीश

का कथन है कि सबसे बड़ा चोर वो, जो किसी दूसरे के काम का श्रेय चुराता है

इसीलिए आप स्वयं देख लीजिये ओशो ने हज़ारों कविताओं को अपने

प्रवचनों में स्थान दिया लेकिन बाकायदा उस कविता के कवि का ससम्मान

उल्लेख कर के ही रचना का उपयोग किया ।


अब जो रचना मेरी है, जिसे रचा मैंने है, जिस रचना पर पूरा अधिकार मेरा है

और जिस रचना को सजाया संवारा और लोकप्रिय मैंने बनाया है उस रचना

को आप ले उड़ें वो भी मुफ़्त में.......ये तो कोई न्याय न हुआ । लिहाज़ा मेरी

प्यारी रचना "जीवन एक क्रिकेट है" को भविष्य में जब भी काम लें,

मेरे नाम के साथ लें । वरना दिल यही कहेगा कि "मेहनत करे मुर्गा और अण्डे

खाए फकीर !"

ऊपर मैंने अखबार में छपी कविता भी दर्शा दी है और अपने संकलन

'सागर में भी सूखा है मन' में छपी कविता भी दर्शा दी है । अपना रुदन विलाप

भी ढंग से ही कर लिया है । अब निर्णय आपको करना है ।


- अलबेला खत्री








जो खानदानी रईस हैं वो मिज़ाज़ रखते हैं नरम अपना - तुम्हारा लहजा बता रहा है, तुम्हारी दौलत नई नई है

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सुप्रसिद्ध शायरा शबीना 'अदीब' की एक ग़ज़ल के दो शे'र बरबस याद

आ गये हैं इसलिए बिना उनकी अनुमति के यहाँ लगा रहा हूँ । अगर वे

ऐतराज़ करेंगी, तो क्षमा मांग लूँगा मिस्टर कुमार विश्वास ! लेकिन शे'र

आप पर फिटिया रहे हैं इसलिए चिपका रहा हूँ :


जो खानदानी रईस हैं वो मिज़ाज़ रखते हैं नरम अपना

तुम्हारा लहजा बता रहा है, तुम्हारी दौलत नई नई है


ज़रा सा कुदरत ने क्या नवाज़ा, के आके बैठे हो पहली सफ़ में

अभी क्यों उड़ने लगे हवा में, अभी तो शौहरत नई नई है



इसके अलावा एक और शे'र भी याद आ रहा है जो श्रद्धेय

बालकवि बैरागी जी से कोई बीस साल पहले सुना था :


कितने कमज़र्फ़ होते हैं ये गुब्बारे, चन्द साँसों में ही फूल जाते हैं

ज़रा सा ज़मीन से क्या उठते हैं, अपनी औक़ात भूल जाते हैं


हो सकता है, इन शे'रों में मुझसे कोई लफ्ज़ इधर-उधर हो गया हो,

लेकिन मतलब वही है ठन-ठन गोपाल ! और इनका प्रयोग मैंने इसलिए

किया क्योंकि पिछले 28 सालों में मैंने हिन्दी काव्य-मंचों पर ऐसे

अनेक कवि-कवयित्री देखे हैं जिनकी शौहरत आसमान को छूती थी

परन्तु वे दर्प से अछूते थे । गोपाल दास नीरज, रमानाथ अवस्थी,

काका हाथरसी, सोम ठाकुर, शैल चतुर्वेदी, विमलेश राजस्थानी,

गोपाल प्रसाद व्यास, भरत व्यास, इन्दीवर, कुंवर बेचैन, शरद जोशी,

आत्मप्रकाश शुक्ल, हुल्लड़ मुरादाबादी, ओमप्रकाश आदित्य, उर्मिलेश,

राधेश्याम प्रगल्भ, बालकवि बैरागी, माया गोविन्द, बरखारानी, ज्ञानवती

सक्सेना, इन्दिरा इन्दू और मंच सम्राट रामरिख मनहर जैसे अनेकानेक

लोगों को प्रसिद्धि के आकाश में झूला झूलते मैंने देखा है । अरे उनकी

प्रसिद्धि के आगे तो तुम्हारी प्रसिद्धि पानी भरती है लेकिन उनकी प्रसिद्धि

हवाई नहीं थी, बल्कि कठोर तप की कमाई थी इसलिए उन्होंने सहेज कर

रखी जो आज तक कायम है ।


दौलत और शौहरत के लिए उन्होंने कभी कोई शोर्ट-कट नहीं अपनाया ।

मिसाल के तौर पर :


उन्होंने कभी भी साउंड ओपरेटर को रूपये दे कर अन्य कवियों के लिए

माइक खराब नहीं कराया जैसा कि तुम करते रहे हो ।


उन्होंने अपने वरिष्ठ या कनिष्ठ कलमकारों का अपनी प्रस्तुति के दौरान

कभी मजाक नहीं उड़ाया जैसा कि तुम करते हो ।


उन्होंने कभी भी प्रोग्राम से पहले ही प्रेस रिपोर्टरों को खिला पिला कर,

अपने फोटो और साक्षात्कार छपवाने के लिए अनुबन्धित नहीं किया

जैसा कि तुम करते हो ।


उन्होंने कभी अपने आप को देश का सर्वाधिक लोकप्रिय कलाकार घोषित

अन्य प्रतिभावान लोगों को अपना चिंटू नहीं बताया जैसा कि तुम करते हो ।



अपने आयोजक के लिए उन्होंने कभी ये नहीं कहा कि उसकी छोकरी या

लुगाई मुझ पर फ़िदा है इसलिए उनकी सन्तुष्टि के लिए मुझे बुलाया है ।



कविसम्मेलन के निमन्त्रण पत्र में उन्होंने सप्रयास कभी भी अपना नाम

और फोटो बड़ा नहीं कराया जैसा कि तुम करते हो।



और तो और उन्होंने चन्द ठहाकों और तालियों के लिए अन्य कवियों की

कविताओं और चुटकियों व टिप्पणियों को कभी नहीं सुनाया जैसा कि तुम

करते हो ।


चूँकि तुम्हारी भूख बड़ी है, तुम्हारी आकांक्षाएं बड़ी हैं इसलिए तुम पचास

तरह के हथकण्डे अपना कर भी लोगों के प्रोग्राम छीन लेते हो ये सोच कर

कि ये तुम्हारा टेलेंट है जबकि ये तुम्हारा टेलेंट नहीं तुम्हारी तक़दीर है

जिसने तुम्हे वो सब देना ही था जिसके पीछे तुम पागल हुए जा रहे हो ।

ठीक उसी तरह जैसे कौआ जितना ज़्यादा सयाना होता है उतनी ही ज़्यादा

गन्दगी खाता है यह सोच कर कि ये उसकी हुशियारी है जबकि ये उसकी

हुशियारी नहीं उसकी तक़दीर है जिसमे लिखा हुआ भोगना ही पड़ता है ।



मैंने भी भोगा है अपने कुकर्मों का फल, अरे मैंने तो कोई षड़यंत्र भी नहीं

रचा और कोई व्यभिचार भी नहीं किया, केवल 10 दिन तक अमेरिका

के केसिनो में जुआ खेला था जिसके लिए आज तक शर्मिन्दा हूँ और

आर्थिक तंगी में हूँ ।



पोस्ट लम्बी हो रही है इसलिए मिलते हैं ब्रेक के बाद..........क्रमशः


कहो कुमार विश्वास ! आपका पुंगीवादन समारोह कहाँ से शुरू किया जाये ? जयपुर से या जबलपुर से ?

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असम्मान
में,

निरादरणीय डॉ कुमार विश्वास,

तथाकथित फ़िल्म गीतकार एवं सर्वाधिक महंगे मंचीय कवि,

भारत



प्रसंग : आपके भव्य पुंगीवादन समारोह की अनुमति पाने के क्रम में ।

सन्दर्भ : आपके दोगले कृतित्व से आहत हिन्दी हास्य कवि-सम्मेलन ।



अपने आपको वोडाफोन वाले कुत्ते से भी ज़्यादा लोकप्रिय,

व्यस्त और महंगे बताने वाले आत्ममुग्ध महोदय !


समय आ गया है कि अब आपकी कलई खोल दी जाये और आपके वास्तविक

चरित्र से अनभिज्ञ जनता को बता दिया जाये कि आप कितने पहुंचे हुए

झूठे, चोरटे, लम्पट, भितरघाती, यारमार, नमकहराम और फेंकुचंद प्राणी हैं

ताकि वे लोग सावधान हो जाएँ जो आपको बढ़ावा ही नहीं देते बल्कि

चढ़ावा भी देते हैं तथा भूलवश आपको घर बुला कर अपने परिवार की बहन-

बेटियों के साथ बतियाने व खिलाने पिलाने की गलतियाँ कर बैठते हैं ।



कृपया एक बार ज़ोरदार ताली बजा कर अनुमति दे दें ताकि ये समारोह

विधिवत शुरू किया जा सके । वैसे आप ताली नहीं बजायेंगे तो भी हम

आपकी पुंगी बजायेंगे और जम कर बजायेंगे ।


कहिये, श्रीगणेश कहाँ से करें ? 1991-92 के जयपुर स्थापना समारोह से

या 93-94 के गुजरात हिन्दी समाज - अहमदाबाद के कवि-सम्मेलन से ?

5 साल पहले हुए कमानिया गेट जबलपुर कवि सम्मेलन से या 5 फरवरी

2011 को सिंगापोर वाले कवि-सम्मेलन से ? राजकुमार भक्कड़ के लिए

की गई घटिया टिप्पणी से या गणपत भंसाली और सुबचनराम के

मखौल से ? प्रख्यात कवि बलबीर सिंह 'करुण' के अपमान से या गजेन्द्र

सोलंकी के उपहास से ? सूरत में शबीना अदीब के खिलाफ साजिश से

या भोपाल में रमेश शर्मा को फ़्लॉप कराने से ? मल्लिका शेरावत पर

फ़िल्माये गये तुम्हारे गाने से या लाफ्टर चेलेंज के डायरेक्टर पंकज

सारस्वत द्वारा तुम्हें तुम्हारी औक़ात दिखाने से ? मंच पर अन्य

कवियों की टिप्पणियां भुनाने से या अन्य प्रदेशों में अपनी मातृभूमि

उत्तर प्रदेश का मज़ाक उड़ाने से ?


यों तो अनेक बिन्दु हैं लेकिन मुझे एक बार इन में से ही कोई बता दो

ताकि मैं अपना काम शुरू कर सकूँ .............इस निर्णय के लिए आपके

पास हैं कुल 12 घंटे और आपका खराब समय शुरू होता है अब ।



अगली पोस्ट में अलबेला खत्री आपको बतायेगा -

जो तोको कांटा बुवे, ताहि बोव तू भाला

वो भी साला याद करेगा, किससे पड़ा है पाला


लगातार .........................अगले अंक में


-अलबेला खत्री




कुमार विश्वास का ये सच अधूरा है गिरीश जी ! इस चोरटे की पूरी कथा तो अब अलबेला खत्री बांचेगा और मज़े से बांचेगा





आज कई दिनों बाद जैसे ही ब्लॉग खोला, आदरणीय गिरीश 'बिल्लोरे'जी,

बबालजी और विजयकुमार तिवारी 'किसलय'जी की लेखनी द्वारा वर्णित 07

अप्रैल की रात जबलपुर में घटी शर्मनाक घटना का वर्णन पढ़ाहालाँकि बहुत

अच्छा लिखा,

निष्पक्ष
और बिना किसी पूर्वाग्रह के लिखा गया वर्णन था परन्तु

मैं समझता हूँ कि ये पर्याप्त नहीं है इसलिए नहीं कि उस रात मैं कुमार विश्वास

के षड़यंत्र का शिकार हो गया बल्कि इसलिए क्योंकि कुमार विश्वास का काला

सच बहुत बड़ा और चौंका देने वाला है उनके लिए जो उसे पूरी तरह जानते

नहीं हैं


अब मैं परत-दर-परत आपको बताऊंगा कि उसकी वास्तविक कारगुज़ारियाँ

कितनी घटिया और केवल कविता बल्कि काव्य-मंचों और कवि

सम्मेलन के आयोजकों को भी शर्मसार कर देने वाली हैं



साथ ही मैं इस आलेख के माध्यम से खुली चेतावनी देता हूँ कुमार विश्वास

को कि अब कोई धृष्टता करे, क्योंकि उसके पापों का घड़ा और मेरे

सब्र का बांध लगभग भर चुका हैयदि भविष्य में फिर कोई ऐसी साजिश

की तो परिणाम वही होगा जिसे मैं अब तक टालता रहा हूँ



अब एक बात मैं सभी ब्लोगर बन्धुओं से पूछना चाहता हूँ ख़ासकर कवि

मित्रों से कि आपकी ऐसी कोई कविता जो कि लोकप्रिय होने के साथ-साथ

आपको भी बहुत प्रिय हो, आपकी पुस्तक में प्रकाशित होने के अलावा

अनेक चैनलों से प्रसारित और अनेक काव्य-मंचों से पढ़ी जा चुकी हो

उस कविता को यदि कोई दूसरा व्यावसायिक कवि बिना आपकी अनुमति

के दुनिया भर में सुनाता रहे और अपने नाम से सुनाता रहे तो क्या आप

उसे क्षमा कर देंगे ? क्या आप ये बर्दाश्त कर पाएंगे कि आपकी औलाद

का बाप कोई दूसरा कहलाये



अभी 08 अप्रेल को हिन्दी दैनिक भास्कर के सभी संस्करणों में मुखपृष्ठ

पर एक कविता छपी है 'जीवन एक क्रिकेट है'



इस कविता को बहुचर्चित युवा सन्त तरुण सागर अपने प्रवचनों में भी

बोलते रहे हैं और भास्कर में भी उन्हीं के हवाले से छपी है जबकि ये मेरी

कविता मेरे काव्य-संकलन 'सागर में भी सूखा है मन' के अलावा अनेक

अखबारों, स्मारिकाओं, कवि-सम्मेलनों और स्टार, सोनी,एनडीटीवी,

इण्डिया टी वी और सहारा टी वी ज़रिये अनेकानेक बार लोगों तक पहुँच

चुकी हैपर मैंने तरुण सागर पर क्रोध इसलिए नहीं किया क्योंकि

सन्त तरुण सागर कोई व्यावसायिक कलाकार नहीं है इसलिए बाज़ारू

लाभ नहीं ले रहे, केवल अपने प्रवचनों में मजबूती लाने के लिए के लिए

चोरी कर रहे हैंइस कारण इस कविता का चोर होते हुए भी वे दण्डनीय

चोर नहीं हैं जबकि कुमार विश्वास तो मेरा व्यावसायिक मंचीय साथी है

और जानता है कि मेरी कविता को चुराना उसे कतई शोभा नहीं देता इसके

बावजूद वह मेरी एक रचना को हर मंच पर सुनाता है और वाहवाही लूटता है



आपकी जानकारी के लिए बतादूँ कि वह कविता भी संकलन में छपी हुई है

और लोकप्रिय भी हैकहिये, क्या सुलूक किया जाये अब इस काव्य-चोर

के साथ ?


रही बात 07 अप्रेल की घटना वाली, तो वो अगले अंक में सविस्तार लिख

रहा हूँ ............यकीं मानिए , जो लिखूंगा, सच लिखूंगा और सच इतना

गन्दा है कि आप झटका खा जायेंगे...........



तो मिलते हैं एक कप चाय के बाद................बहुत दिनों बाद

बीवी के हाथ की चाय मिल रही है भाई........


क्रमशः



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