दर्द के मारे वह तड़प रही थी. आँखों से लगातार आंसू बह रहे थे
और चीत्कार ऐसे कर रही थी मानो...आसमान फाड़ डालेगी . उसकी
वह पीड़ा व करुण क्रन्दन मुझसे नहीं देखे जा रहे थे तो वह स्वयं
कैसे बर्दाश्त कर रही होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है .
पहली बार मैंने उस दिन भगवान को कोसा कि हे भगवान ! तू ऐसे
बेघर, भूखे-प्यासे और समाज के ठुकराए हुए, पहले से ही महादुखी
इन मासूम गरीबों को इतना दुःख क्यों देता है कि देखने वालों की
आँखों से भी लोहू टपक पड़े...........
बात रायपुर रेलवे स्टेशन की है जहाँ कुछ दिन पहले बंधुवर अनिल
पुसदकर और ललित शर्मा जी मुझे छोड़ गए थे परन्तु मेरी ट्रेन चार
घंटे लेट होने की वजह से मैं टाइमपासू प्रक्रिया में स्टेशन के मुख्य
द्वार के पास ही बाहर एक ऐसी जगह खड़ा सिगरेट फूंक रहा था जहाँ
बहुत से यात्री, भिखारी, कुली, पुलिस वाले इत्यादि जमा थे . यह
चिल्लाने और रोने वाली महिला लगभग 30 वर्षीय फटेहाल भिखारन
थी जिसके पाँव का एक पंजा ज़ख़्मी था बल्कि पूरी तरह से सडा
हुआ था यों लग रहा था मानो उसके ऊपर से कोई वाहन गुज़र गया
हो . वह बार बार अपने पंजे को हाथ में लेती और रोती ......फिर इधर
उधर देखती कि शायद कोई मदद कर दे.....मेरा मन किया कि उसे
किसी डाक्टर के पास ले जाऊं.......लेकिन संभव नहीं था क्योंकि मेरे
पास बहुत सा लगेज था ..फिर सोचा मेरे पास जित्ती दर्द निवारक है
दे दूँ...मगर अगर कोई गोली उसे रिएक्शन कर गयी तो ? खैर मैंने
सबसे सही तरीका अपनाया और जेब से पाँच पाँच सौ के दो नोट
निकाल कर देने लगा . तभी मैंने देखा कि एक और मैला कुचैला सा
गरीब भिखारी उसके पास आ कर बैठ गया और बतियाने लगा . वह
नशे में लग रहा था . उसने अपने थैले में से एक बोतल निकाली और
एक घूँट भरके उस रोती हुई महिला को दे दी...महिला एक ही सांस
में पूरी बोतल खाली कर गयी .........फिर उसने अपने झोले में हाथ
डाल कर कुछ निकाला जिनमे कुछ वेफर थे, दो पैकेट नमकीन
काजू के थे एक पार्ले जी था और एक आलू वडा था . मैं कौतुहल
से देखने लगा . पुरुष भिखारी ने दो बीड़ियाँ एक साथ सुलगायीं
जिनमे से एक महिला को थमा दी . महिला ने हाहाकारी सुट्टा
लगाया और चार - पाँच " वो वाली गालियाँ " दे कर शांत हो गयी .
हालांकि पाँव से उसकी पीड़ा अब भी कम नहीं हुई थी ये उसका
चेहरा बता रहा था .
तभी वहां एक और भिखारीनुमा शख्स आया जिसे देख कर दोनों
की आँखें चमक उठीं . उनहोंने जल्दी जल्दी अपने झोलों में हाथ
डाला और ये सब सामान निकाला - एक नयी लुंगी, एक तौलिया,
एक प्लेट पीतल की, चार पाँच ब्लाउज पीस, एक साड़ी और एक
जोड़ी नयी हवाई चप्पल ..........नए भिखारी ने सब सामान देखा
और उन्हें इशारा किया ...थोडा मोल भाव जैसा कुछ हुआ और
अंततः महिला ने अपने झोले में से एक पीतल का बड़ा सा गिलास
निकाला और नए भिखारी ने अपने झोले में से एक लीटर वाली
थम्सअप की बोतल निकाली जिसमे कच्ची शराब भरी हुई थी......
...ऐसा मैं इसलिए कह सकता हूँ कि कोई भी शराब इत्ती बदबू नहीं
मारती..जित्ती वो मार रही थी...........ऐन उसी वक्त एक पुलिस सब
इन्स्पेक्टर और कुछ सिपाही वहां से गुज़रे और उन्होंने सब देखा
भी...........परन्तु चुपचाप निकल लिए .........
फिर सारे सामान देकर शराब खरीदी गयी, पी गयी, उबले अंडे मंगा
कर खाए गए यानि कि पार्टी हो गयी...ये देख कर मेरा मन वितृष्णा
से भर गया ......और मैंने अपने रूपये वापिस में पर्स में रख कर
भगवान से माफ़ी मांगी उसे कोसने के लिए और नयी सिगरेट सुलगा
कर वहां से दूर हट गया तो देखा दो कम उम्र के लड़के, एक बूढ़ा
और एक जवान महिला बैठे ब्राउन सुगर पी रहे थे ......हे राम !
क्या यही छत्तीसगढ़ का रायपुर स्टेशन है जहाँ यात्री धूम्रपान
नहीं कर सकता और भिखारी ड्रग्स ले रहे हैं ...क्यों अनिल पुसदकर
जी...क्यों ललित शर्मा जी ? कभी ध्यान दो भाई इस बुराई पर भी.....
क्षमा करना ..रायपुर में मैंने जो देखा वो द्रवित करने वाला तो था ही
क्रोधित भी कर गया
10 comments:
अलबेला जी , इस तरह के दृश्य संवेदनशील हृदय स्वामी के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं ।
दुनिया में अक्सर जो दिखता है, वह होता नहीं । और जो होता है , वह दिखता नहीं ।
क्रोध और करुणा --दोनों पर नियंत्रण ज़रूरी है ।
@ dr. t s daral saheb, aap thik kah rahe hain ...........lekin any logon ki apeksha ek kalakar ka man zara zyada bhaavuk hota hai .......bah jaata hai
अलबेला जी, आपने जो अनुभव किया वही मैंने भी कई बार अनुभव किया, परंतु अब किसी की मदद करने की इच्छा नहीं होती, हाँ इसी कारण से वाकी जिसको मदद की जरूरत होती होती, वो मदद से महरूम रह जाता है। पर क्या करें ऐसी धोखाधड़ी का...
भयानक अमानवीय दृश्य ! भगवान किसी को भी ऐसे दृश्य न दिखाए !
यह द्श्य सिर्फ रायपुर का नहीं है. देश के लगभग सभी बस, ट्रेन स्टेशनों में ऐसा बार-बार देखा जा सकता है. एक बार मेरी भतीजी को रायपुर स्टेशन से अहमदाबाद जाना था. हम परिवार के लोग उसे छोड़ने स्टेशन गये. उसकी भी ट्रेन लेट थी. हम सभी स्टेशन में बने कुर्सी में बैठे थे, तभी एक बुड्ढी भिखारन हमारे पास आयी. हमने उसे कुछ रूपये दिये. उसके जाने के तुरंत बाद हमारे इर्द-गिर्द भिखारियों की लाईन लग गई और हमें मजबूरी में उस कुर्सी को छोड़ना पड़ा.
हम कुछ दूरी में फिर बैठ गए. वह वृध्द भिखारन फिर हमें दिखाई दी. वह एक बार फिर हथेली फैलाए हमारे पास आई. ठंड का मौसम वह थरथर कांप रही थी. शायद प्लेटफार्म में लगे नल के पानी से नहाने के बाद गिले कपड़ों में होने की वजह से वह कुछ ज्यादा ही कांप रही थी. मेरी भतीजी का दिल पसीज गया. वह सामान हमारे हवाले कर स्टेशन से बाहर निकली और उस भिखारन के लिए नया शाल खरीद लायी. शाल भिखारन को देकर उसे जितनी खुशी हुई उससे ज्यादा हम सभी खुश हुए.
ट्रेन के लेट होने का समय बार-बार बढ़ रहा था. परेशान हो मैं अपनी भतीजी के साथ बुक स्टाल पहुंची कि कुछ अच्छी बुक हो तो खरीद लें. वहां जब हम पहुंचे तो वह वृध्द भिखारन हमें दिख गई. उसने वह शाल नहीं ओड़ा था, जो मेरी भतीजी ने उसे ओड़ाई थी. वह कांपती मुद्रा में वहां भीख मांग रही थी. अब मेरी भतीजी को क्रोध आया कि जब उसे ठंड से बचने शाल दिया गया है तो उसने उसे ओड़ा क्यों नहीं? भतीजी ने उसके पास जाकर पूछा तो वह क्या कहती है- नोनी तोर काम दे के रहिस ते दे दे अब मे ओकर का करथव तोला का करना हे? मोर बेचा ओला बेचके आही. शाल ओड़ के काय करहू. पइसा मिलही तभे दारू आही. सबो संगवारी संग बईठ के पीबो. जाड़ अपने आप भगा जही.
शराब और नशीली चीजों ने इन गरीबों को उसका इतना आदि बना दिया है कि इन्हें और कुछ सुझता ही नहीं. हम बेकार में इनके प्रति सहानुभूति दिखाते हैं.
यह दृश्य देखना किसी को भी अच्छा नहीं लगता!
albela ji, bat aapki satya hai parantu yadi sahayta karne vali bat jahan hai us pahlu ko yadi chod den to aap payenge ki yah bhi jivan chalane ya jine ka ek tarika hai. aap isme bhi hasy ya kavita dhundh sakte hain.
आपने बहुत सही लिखा है |यह दश्य आज से ४५ साल पहले भी मैंने देखा था और वहाँ की गरीबी से मन बहुत दुखा था |मैंने सोचा इतने सालों में काफी कुछ बदला होगा |पर लगता है शहर कितना ही बड़ा ही जाए आज भी हालात वही हैं जो परतंत्र भारत में थे |गरीब और गरीब हो रहा है और सुख समृद्धि चंद लोगों के पास सिमट कर रह गयी है |
अच्छा लेख बधाई |
आशा
सुनीता जी की हलचल से यहाँ आना हुआ.
आपकी प्रस्तुति पढकर मन ग़मगीन हो गया,अलबेला जी.
बाबा भारती की कहानी याद आ रही है,
आप मेरे ब्लॉग से क्यूँ मुख मोड हुए हैं जी?
आज 22/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति मे ) पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
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