पंडित प्रदीप !
जी हाँ...पंडित प्रदीप अर्थात एक ऐसा वैयक्तित्व जिसमे उजाला
ही उजाला था । लगभग सन्त जैसी अवस्था में पहुंचे हुए उस महान
कवि / गीतकार / भजनकार व मानवीय संवेदना के प्रखर गायक
की कल बहुत याद आई...
संयोग से कल उस पुण्यात्मा की पुण्यतिथि भी थी...
1994-95 में उनसे दो बार भेन्ट हुई थी......एस वी रोड, विलेपार्ले
स्थित उनके बंगले 'पंचामृत' में कवि आशकरण अटल मुझे ले गए
थे उस विभूति से मिलाने क्योंकि हम एक साहित्यिक- सामाजिक
संस्था "R.S.C.F." द्वारा उन्हें 'रचनाकार' सम्मान के तहत एक
लाख इक्यावन हज़ार रूपये का सर्वोच्च पुरस्कार भेन्ट करना
चाहते थे । लेकिन पंडितजी ने विनम्रता पूर्वक यह कह कर मना
कर दिया कि पुरस्कार के लिए मुझे आना पड़ेगा, आऊंगा तो कुछ
सुनाना भी पड़ेगा और सुनाने की हालत में मैं हूँ नहीं क्योंकि
स्वास्थ्य अच्छा नहीं है इसलिए अगर मैं वहाँ उपस्थित दर्शकों के
साथ न्याय नहीं कर सकता तो मैं आऊंगा भी नहीं .............
पंडितजी ने गीत लेखन में जिस शैली को अपनाया उसकी बारीकियां
बताते हुए उन्होंने जो गुर सिखाये...वो मेरे जीवन में हासिल किया
हुआ सबसे बड़ा सरमाया है और सहेज कर रखा है.....
बहुत से लोग जानते हैं कि मैं पंडित प्रदीपजी का ज़बरदस्त भक्त रहा हूँ
और उनके सारे के सारे गीत मुझे बरसों से कंठस्थ हैं । गाता भी उन्हीं की
भांति हूँ .......ख़ास कर कवि ॐ प्रकाश आदित्य और हरी ॐ पंवार जब
भी कहीं मिलते, तो घंटों तक मेरा नॉन स्टॉप गायन चलता...
खैर........पंडितजी ने एक बात मुझे सलाह के रूप में दी थी... वो मान ली
होती, तो आज शायद मैं ज़्यादा सुखी होता........मेरी कवितायें सुन कर
उन्होंने कहा था " बेटा, कालबादेवी में पान की दुकान खोल लो.........
फ़ायदे में रहोगे । क्योंकि कविता को बेच कर पैसा कमाओगे तो कभी
सुखी नहीं रहोगे.......... कविता सरस्वती की देन है और उसे केवल
आनन्द के लिए ही लिखा-पढ़ा करो। "
सच ही कहा था उन्होंने । कविता के बजाय मैंने मुम्बई में कोई भी
व्यवसाय किया होता तो आज ज़्यादा सुखी होता और सफल भी ।
लेकिन जुनून ऐसा था कि कविता के अलावा कुछ सूझता ही न था ।
आज जब कविता सुनाने के पैसे लेता हूँ और उस पैसे से घर-बार
चलाता हूँ तो शर्म भी आती है और पंडित जी की याद भी.........
इसलिए कोशिश कर रहा हूँ कि कविता को शौकिया सुनाया करूँ
और घर चलाने के लिए कॉमेडी या अभिनय के क्षेत्र में ही काम
करूँ । देखें,,,,,,,,,,क्या होता है ।
पंडितजी की पावन स्मृति को नमन !
-अलबेला खत्री
जी हाँ...पंडित प्रदीप अर्थात एक ऐसा वैयक्तित्व जिसमे उजाला
ही उजाला था । लगभग सन्त जैसी अवस्था में पहुंचे हुए उस महान
कवि / गीतकार / भजनकार व मानवीय संवेदना के प्रखर गायक
की कल बहुत याद आई...
संयोग से कल उस पुण्यात्मा की पुण्यतिथि भी थी...
1994-95 में उनसे दो बार भेन्ट हुई थी......एस वी रोड, विलेपार्ले
स्थित उनके बंगले 'पंचामृत' में कवि आशकरण अटल मुझे ले गए
थे उस विभूति से मिलाने क्योंकि हम एक साहित्यिक- सामाजिक
संस्था "R.S.C.F." द्वारा उन्हें 'रचनाकार' सम्मान के तहत एक
लाख इक्यावन हज़ार रूपये का सर्वोच्च पुरस्कार भेन्ट करना
चाहते थे । लेकिन पंडितजी ने विनम्रता पूर्वक यह कह कर मना
कर दिया कि पुरस्कार के लिए मुझे आना पड़ेगा, आऊंगा तो कुछ
सुनाना भी पड़ेगा और सुनाने की हालत में मैं हूँ नहीं क्योंकि
स्वास्थ्य अच्छा नहीं है इसलिए अगर मैं वहाँ उपस्थित दर्शकों के
साथ न्याय नहीं कर सकता तो मैं आऊंगा भी नहीं .............
पंडितजी ने गीत लेखन में जिस शैली को अपनाया उसकी बारीकियां
बताते हुए उन्होंने जो गुर सिखाये...वो मेरे जीवन में हासिल किया
हुआ सबसे बड़ा सरमाया है और सहेज कर रखा है.....
बहुत से लोग जानते हैं कि मैं पंडित प्रदीपजी का ज़बरदस्त भक्त रहा हूँ
और उनके सारे के सारे गीत मुझे बरसों से कंठस्थ हैं । गाता भी उन्हीं की
भांति हूँ .......ख़ास कर कवि ॐ प्रकाश आदित्य और हरी ॐ पंवार जब
भी कहीं मिलते, तो घंटों तक मेरा नॉन स्टॉप गायन चलता...
खैर........पंडितजी ने एक बात मुझे सलाह के रूप में दी थी... वो मान ली
होती, तो आज शायद मैं ज़्यादा सुखी होता........मेरी कवितायें सुन कर
उन्होंने कहा था " बेटा, कालबादेवी में पान की दुकान खोल लो.........
फ़ायदे में रहोगे । क्योंकि कविता को बेच कर पैसा कमाओगे तो कभी
सुखी नहीं रहोगे.......... कविता सरस्वती की देन है और उसे केवल
आनन्द के लिए ही लिखा-पढ़ा करो। "
सच ही कहा था उन्होंने । कविता के बजाय मैंने मुम्बई में कोई भी
व्यवसाय किया होता तो आज ज़्यादा सुखी होता और सफल भी ।
लेकिन जुनून ऐसा था कि कविता के अलावा कुछ सूझता ही न था ।
आज जब कविता सुनाने के पैसे लेता हूँ और उस पैसे से घर-बार
चलाता हूँ तो शर्म भी आती है और पंडित जी की याद भी.........
इसलिए कोशिश कर रहा हूँ कि कविता को शौकिया सुनाया करूँ
और घर चलाने के लिए कॉमेडी या अभिनय के क्षेत्र में ही काम
करूँ । देखें,,,,,,,,,,क्या होता है ।
पंडितजी की पावन स्मृति को नमन !
-अलबेला खत्री
7 comments:
भाई अलबेला जी रचनाशीलता और व्यवसायिकता में द्वंद आदिकाल से ही रहा है. इसलिए हर काल में रचनाकार दो स्तरों पर जीता ही आया है ण्क, रोज़ी-रोटी के लिए रचनाकर्म दूसरे, अभिव्यक्ति का रचनाधर्म. इसिलए मेरे विचार से...अपराधबोध की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए.
kaajal ji,
nain aapki baat se sahamat hoon .......fir bhi man me aa hi jaati hai ye baat ki jo cheej kisi daivishakti ne kripa karke bakhshi hai use bech bech kar ghar chalaana aakhir hai toh apraadh hi....
kahne ko ham kah dete hain ki bhai ham kavita ka koi paisa nahin lete, ham to aane-jaane me jo samay aur shram lagta hai uska muaavza lete hain lekin ham ye bhi jaante hain ki bulaaya to kavita ke liye hi hota hai varna kyon koi bulayega..
aapne mujh jaise nacheez ki baat ko mahatva diya aur apni baat kahi, main aapka kritagya hoon
dhnyavaad,
-albela khatri
हमें खुशी है आप यहां सर्वसुलभ है बिना व्यावसायिकता के.
nice post, वाकई बहुत अच्छा मशवरा था मान लिया होता तो न आज आप होते, न फिर कुछ आप जैसे हम होते, बस पान की दुकान होती और केंसर होता, आपने पडित जी को दिल से याद किया है
बहुत ही प्रेरक प्रसंग है!
नैसर्गिक कवि प्रदीप जी को श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ!
कवि प्रदीप जी mahaan rachnakar they. unke saath rahane vala bhi mahan ho jata tha. aapko bhi unke saath rahane ka saubhagy mila, yah jankar khushi huyee.
कवि प्रदीप जी को श्रृद्धांजलि.
अच्छा प्रसंग सुनाया आपने.
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