दोस्तों !
मौसम और नेट प्रोब्लम के कारण इस पोस्ट में थोड़ा विलम्ब हो गया
है, कृपया क्षमा करें । तो प्रस्तुत है www.albelakhatri.com
आयोजित स्पर्धा क्रमांक 3 के परिणाम :
मित्रो ! मैंने बार-बार निवेदन किया था कि स्पर्धा के सहभागी कृपया
अधिकाधिक ग़ज़लें भेजें.......क्योंकि प्रत्येक रचना के 200 पॉइंट्स
हैं इसलिए जिसकी रचनाएं ज़्यादा होंगी वही विजेता होगा जैसा कि
स्पर्धा क्रमांक 1 और 2 में हुआ था । परन्तु ज़्यादातर लोगों ने इस पर
ध्यान नहीं दिया । इसलिए रचना की दृष्टि से सुदृढ़ होते हुए भी संख्या
की दृष्टि से कुछ सहभागी विजेता होते होते रह गये ।
स्पष्टतः इस स्पर्धा के विजेता रहे डॉ रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' जिन्होंने
13 ग़ज़लें भेजीं और सभी ग़ज़लें शानदार रहीं । बधाई हो "मयंक" जी !
रूपये 1100 की सम्मान राशि हुई आपके नाम, जय हो..........आप
लगातार दूसरी बार विजेता रहे हैं ।
परन्तु स्पर्धा का परिणाम यहाँ पूरा इसलिए नहीं होता क्योंकि श्री
राजेन्द्र स्वर्णकार की 5 ग़ज़लें और सुश्री श्वेता जिन्दल की 5 ग़ज़लें
भी महत्वपूर्ण हैं । राजेन्द्र जी की ग़ज़लें इसलिए महत्वपूर्ण हैं
क्योंकि उनकी रचनाओं में सामाजिक और सामयिक विसंगतियों
पर करारा और सटीक व्यंग्य देखने को मिला जबकि श्वेता
जिन्दल की रचनाएं इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भले ही ग़ज़ल की
बहर और मीटर के लिहाज़ से वे सटीक न हों परन्तु विषय और
शब्दावली के लिए उन्हें उत्साहित किया जाना चाहिए ताकि भविष्य
में वे अपनी त्रुटियों को दूर कर, और बेहतर ग़ज़लें कह सकें ।
लिहाज़ा स्पर्धा की राशि में दुगुनी वृद्धि कर के, राजेन्द्र स्वर्णकार और
श्वेता जिन्दल के लिए रूपये 555-555 के दो विशेष सम्मान भी रखे
गये हैं । मुबारक हो राजेन्द्र जी और श्वेता जी !
श्री रवि रतलामी जी और श्री शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल' ने बहुत
ज़बरदस्त ग़ज़लें भेजी, लेकिन केवल 1-1 ग़ज़ल ही भेजी । सर्वश्री
पुनीत भारद्वाज, सुनील कुमार, भूपेंद्र सिंह और एम वर्मा की रचनाएं
भी बेहतरीन थीं । www.albelakhatri.com की ओर से मैं आप
सभी का शुक्रगुज़ार हूँ ।
बहरहाल बाकी सब तो मैंने पिछली पोस्ट में लिख ही दिया है ।
http://albelakhari.blogspot.com/2010/10/blog-post_29.html
अब प्रस्तुत हैं वे सब ग़ज़लें जो प्राप्त हुईं :
डॉ रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' की १३ ग़ज़लें :
मित्र का साथ निभाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
एक दिन मौज मनाने से क्या भला होगा?
रोज दीवाली मनाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
इन बनावट के उसूलों में धरा ही क्या है?
प्रीत हर दिल में जगाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
क्यों खुदा कैद किया दैर-ओ-हरम में नादां,
रब को सीने में सजाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
सिर्फ पुतलों के जलाने से फयदा क्या है?
दिल के रावण को जलाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
अन्धे कुएँ में पैंठकर, ऐसे न तुम ऐंठा करो,
झील-तालाबों की दुनिया और है।
बन्द कमरों में न तुम, हर-वक्त यूँ बैठा करो,
बाग की ताजा फिजाँ कुछ और है।
स्वर्ण-पिंजड़े में कभी शुक को सुकूँ मिलता नही,
सैर करने का मज़ा कुछ और है।
जुल्म से और जोर से अपना नहीं बनता कोई
प्यार करने की रज़ा कुछ और है।
गाँव में रहकर रिवाजों-रस्म को मत तोड़ना,
प्रीत की होती सज़ा कुछ और है।
आप आकर मिले नहीं होते।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
घर में होती चहल-पहल कैसे,
शाख पर घोंसले नहीं होते।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
गर न मिलती नदी समन्दर से,
मौज़ के मरहले नही होते।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
सुख की बारिश अगर नही आती,
गुल चमन में खिले नहीं होते।।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
दिल मे उल्फत अगर नही होती,
प्यार के हौंसले नहीं होते।।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
हुस्न में गर कशिश नही होती,
इश्क के काफिले नही होते।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
जो परिन्दे के पर कतरता है।
वो इबादत का ढोंग करता है।।
जो कभी बन नही सका अपना,
दम वही दोस्ती का भरता है।
दीन-ईमान को जो छोड़ रहा,
कब्र में पाँव खुद ही धरता है।
पार उसका लगा सफीना है,
जो नही ज़लज़लों से डरता है।
इन्तहा जिसने जुल्म की की है,
वो तो कुत्ते की मौत मरता है।
सितारों के बिना सूना गगन है।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
भजन-पूजन, कथा और कीर्तन हैं,
सुधा के बिन अधूरा आचमन है।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
नजारे हैं, नजाकत है, नफासत है,
अधूरा नेह बिन चैनो-अमन है।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
सफर में साथ कब देते मुसाफिर,
अकेले ही सभी करते गमन हैं।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
लुभाते रंग वाले वस्त्र सबको,
मेरी तकदीर में सादा कफन है।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
बना वर्चस्व सागर का तभी तक,
जहाँ में जब तलक गंगो-जमुन हैं।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
कोई फूलों का प्रेमी है,
कोई कलियों का दीवाना!
मगर हम उसके आशिक हैं,
वतन का हो जो परवाना!!
जवाँमर्दी उसी की है,
जो रक्खे आग को दिल मे,
हमारी शान का परचम था,
ऊधम सिंह वो मरदाना!
मुमताजमहल लाखों देंगे,
बदले में एक पद्मिनी के,
निज आन-बान की रक्षा को,
देना प्रताप सा महाराणा!
माँ सरस्वती वीणा रखकर,
धारण त्रिशूल कर, दुर्गा बन,
रिपु-दमन कला में, हे माता!
पारंगत मुझको कर जाना!
खिल रहे हैं चमन में हजारों सुमन,
भाग्य कब जाने किस का बदल जायेगा!
कोई श्रृंगार देवों का बन जायेगा,
कोई जाकर के माटी में मिल जायेगा!!
कोई यौवन में भरकर हँसेगा कहीं,
कोई खिलने से पहले ही ढल जायेगा!
कोई अर्थी पे होगा सुशोभित कहीं,
कोई पूजा की थाली में इठलायेगा!
हार पुष्पांजलि का बनेगा कोई,
कोई जूड़े में गोरी के गुँथ जायेगा!
दूज का चन्दा गगन में मुस्कराया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
कर लिए अल्लाह ने रोजे कुबूल,
अपने बन्दों को खुशी का दिन दिखाया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
अम्न की खातिर पढ़ी थीं जो नमाजे,
उन नमाजों का सिला बदले में पाया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
छा गई गुलशन में जन्नत की बहारें,
ईद ने सबको गले से है मिलाया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
पड़ गईं जब पेट में दो रोटियाँ,
बेजुबानों में जुबानें आ गईं।
बस गईं जब बीहड़ों में बस्तियाँ,
चल के शहरों से दुकानें आ गईं।
मन्दिरों में आरती होने लगीं,
मस्जिदों में भी नमाजें आ गईं।
कंकरीटों की फसल उगने लगी,
नस्ल नूतन कहर ढाने आ गई।
गगनचुम्बी शैल हिम तजने लगे,
नग्नता सूरत दिखाने आ गईं।
हम अनोखा राग गाने में लगे हैं।
साज हम नूतन बजाने में लगे हैं।।
भूल कर अब तान वीणा की मधुर,
मान माता का घटाने में लगे हैं।
मीर-ग़ालिब के तराने भूल कर,
ग़ज़ल का गौरव मिटाने में लगे हैं।
दब गया संगीत है अब शोर में,
कर्णभेदी सुर सजाने में लगे हैं।
छन्द गायब, लुप्त हैं शब्दावली,
पश्चिमी धुन को सुनाने में लगे हैं।
गीत की सारी मधुरता लुट गई,
हम नए नगमें बनाने में लगे हैं।
हम धरा के पेड़-पौधे काट कर,
फसल काँटों की उगाने में लगे हैं।
छोड़ कर रसखान वाले अन्न को,
आज हम कंकड़ पचाने में लगे हैं।
छल-फरेबी के हाट में जाकर,
भीड़ में नर तलाश करते हो!
ऊँचे महलों से खौफ खाते हो,
नीड़ में ज़र तलाश करते हो!
दौर-ए-मँहगाई के ज़माने में,
खीर में गुड़ तलाश करते हो!
ज़ाम दहशत के ढालने वालो,
पीड़ में सुर तलाश करते हो!
दीन-दुखियों के दुख से हों आँखें सजल।
है वही जिन्दगी की मुकम्मल गजल।।
झूठी रस्म-औ-रवायत से जो लड़ सके,
जो ज़माने के दस्तूर को दे बदल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
कल तलक हो रहे थे जो जुल्म-ओ-सितम,
अब दिलों में दिखाई न दे वो गरल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
दें रसीले फलों को उगें वो शजर,
कोई बोये न अब कण्टकों की फसल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
शुद्ध गंगा को इतनी न मैली करो,
इसमें डालो न अब गन्दगी और मल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
मिटने पाये न अब सम्पदा देश की,
होने पाये न दूषित धरातल विमल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
एकता-भाईचारा सलामत रहे,
हों दिलों में सभी के मुहब्बत तरल।
है वही जिन्दगी की ………………।।।
ईमान ढूँढने निकला हूँ, मैं मक्कारों की झोली में।
बलवान ढूँढने निकला हूँ, मैं मुर्दारों की टोली में।
ताल ठोंकता काल घूमता, बस्ती और चौराहों पर,
कुछ प्राण ढूँढने निकला हूँ, मैं गद्दारों की गोली में।
आग लगाई अपने घर में, दीपक और चिरागों ने,
सामान ढूँढने निकला हूँ, मैं अंगारों की होली में।
निर्धन नहीं रहेगा कोई, खबर छपी अख़बारों में,
अनुदान ढूँढने निकला हूँ, मैं सरकारों की बोली में।
सरकण्डे से बने झोंपड़े, निशि-दिन लोहा कूट रहे,
आराम ढूँढने निकला हूँ, मैं बंजारों की खोली में।
यौवन घूम रहा बे-ग़ैरत, हया-शर्म का नाम नहीं,
मुस्कान ढूँढने निकला हूँ, मैं बाजारों की चोली में।
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श्री राजेन्द्र स्वर्णकार की ५ ग़ज़लें :
भर गए बाज़ार नक़ली माल से
लीचियों के खोल में हैं फ़ालसे
लफ़्ज़ तो इंसानियत मा'लूम है
है मगर परहेज़ इस्तेमाल से
ना ग़ुलामी दिल से फ़िर भी जा सकी
हो गए आज़ाद बेशक़ जाल से
भूल कर सिद्धांत समझौता किया
अब हरिश्चंदर ने नटवरलाल से
खोखली चिपकी है चेहरों पर हंसी
हैं मगर अंदर बहुत बेहाल से
ज़िंदगी में ना दुआएं पा सके
अहले-दौलत भी हैं वो कंगाल से
सोचता था…ज़िंदगी क्या चीज़ है
उड़ गया फुर से परिंदा डाल से
इंक़लाब अंज़ाम दे आवाम क्या
ज़िंदगी उलझी है रोटी-दाल से
शाइरी करते अदब से दूर हैं
चल रहे राजेन्द्र टेढ़ी चाल से ग़ज़ल
मुझे तू ख़ार ही देना , गुलों के हार मत देना
मगर उंगली उठे ऐसा मुझे किरदार मत देना
तेरे दर का सवाली हूं, निशानी दे कोई मुझको
कराहत दे मुझे बेशक मुहब्बत प्यार मत देना
हुनर-ओ-हौसलों से मैं करूंगा तय सफ़र तनहा
बरगलादें मुझे हर मोड़ पर… वो यार मत देना
मैं आजिज़ आ गया हूं देख सुन हालात दुनिया के
मेहरबानी… मेरे हाथों में अब अख़बार मत देना
जो कासिद की तसल्ली की बिना पर ख़त तुम्हें भेजा
वो आतिश के हवाले कर कहीं सरकार मत देना
जहां को बांट' फ़िरकों में, दिलों को चाक जो करते
पयंबर पीर ऐसे औलिया अवतार मत देना
जिएं दाना ओ पानी पर मेरे , घर में रहें मेरे
यक़ीं के जो न हों क़ाबिल वो हद ग़द्दार मत देना
वतन को बेचदे राजेन्द्र जो अपनी सियासत में
वो ख़िदमतगार मत देना , अलमबरदार मत देनाग़ज़ल
हाथ मारें , और… हवा के नश्तरों को नोचलें
जो नज़र में चुभ रहे , उन नश्तरों को नोचलें
शौक से जाएं कहीं , पर… दर - दरीचे तोल कर
झूलते हाथों के पागल - पत्थरों को नोचलें
मुद्दतों से दूरियां गढ़ने में जो मशगूल हैं
खोखले ऐसे रिवाजों - अधमरों को नोचलें
छोड़ कर इंसानियत शैतां कभी बन जाइए
बरगलाते हैं जो ; ऐसे रहबरों को नोचलें
जो ; ग़ज़ल की सल्तनत को मिल्कियत ख़ुद की कहें
उन तबीअत - नाज़ीआना शाइरों को नोचलें
जो कहा राजेन्द्र ने अपनी समझ से ठीक था
वरना उसके फ़ल्सफ़े को , म श् व रों को नोचलेंक़लम !
मत ज़्यादा सच बोल क़लम !
झूठों का है मोल क़लम !
होता है सतवादी का
जल्दी बिस्तर गोल क़लम !
चारों ओर जिधर देखो
पोल पोल बस पोल क़लम !
चट्टानें कमजोर यहां
जंगी थर्माकोल क़लम !
यहां थियेटर चालू है
सब का अपना रोल क़लम !
बांच हिस्टरी मत सब की
पढ़ थोड़ा भूगोल क़लम !
नंगे और कुरूप लगें
मत यूं कपड़े खोल क़लम !
ख़बर तुझे सब है , पर कर
जग ज्यूं टालमटोल क़लम !
बता नियत्रण में हालत
बेशक डांवाडोल क़लम !
कौन हाथ कब आता है
उड़तों के पर तोल क़लम !
देख लाल पत्ते सब का
ईमां जाता डोल क़लम !
तेरे किस - किस क़ातिल को
ढूंढे इंटरपोल क़लम !ग़ज़ल
बड़े बदरंग दिखते हैं मनाज़िर मुल्क में मेरे
हुए हालात अब क़ाबू से बाहर मुल्क में मेरे
चहकती बुलबुलें हरसू महकती थी हसीं कलियां
वहीं पसरे हैं कांटे और अज़गर मुल्क में मेरे
बहा करती कभी , घी - दूध की नदियां , वहीं पर अब
नहीं पानी तलक सबको मयस्सर मुल्क में मेरे
बदन पर पैरहन बाकी न आंखों में हया बाकी
कभी शर्मो - हया होती थी ज़ेवर मुल्क में मेरे
सियासतदां नशे में हैं या फ़िर आवाम सोई है
खुले फिरते गुनहगारों के लश्कर मुल्क में मेरे
न सुनते , देखते ना बोलते ; हालात जो भी हो
बचे हैं शेष गांधीजी के बंदर मुल्क में मेरे
हुआ राजेन्द्र सच सच बोलने पर क़त्ल यां हर दिन
ज़ुबां वालों , रहो ख़ामोश , डर कर मुल्क में मेरेसंक्षिप्त परिचय
नाम : राजेन्द्र स्वर्णकार
जन्म : 21 सितंबर
पिता का नाम : स्वर्गीय श्री शंकरलालजी
माता का नाम : श्रीमती भंवरीदेवी
स्थायी पता : गिराणी सोनारों का मौहल्ला ,
बीकानेर 334001 ( राजस्थान )
मोबाइल नं : 9314682626
फोन नं : 0151 2203369
ईमेल : swarnkarrajendra@gmail.com
ब्लॉग : शस्वरं
ब्लॉग लिंक : http://shabdswarrang.blogspot.
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सु श्री श्वेता जिन्दल की 5 ग़ज़लें :
श्री पुनीत भारद्वाज की 3 ग़ज़लें -
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कल शब ख़्वाबों को टिमटिमाते देखा
गीता-कुरान को इक-दूजे से हाथ मिलाते देखा..
मंदिर के आसन पर बैठा था इक नमाज़ी
मस्जिद के द्वारे इक पुजारी को जाते देखा...
गली से गुज़र रहा था इक मस्त-कलंदर
बच्चों की भीड़ में ख़ुद को खिलखिलाते देखा...
होटलों के बाहर भूख से लड़ते भिखारी
होटलों के अंदर जिस्मों को आज़माते देखा....
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ज़िंदगी तूफ़ानों में बीती सारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है
बारहा डूबते-डूबते बचे हैं
बारहा मौजों में क़श्ती उतारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है...
आसमां तो फिर भी आसमां है
अब तो आसमां से भी आगे जाने की तैयारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है.....
जिसे चाहे अपना बना लें,
जिसे चाहे दिल से लगा लें,
इसे मेरा जुनून समझो या समझो कोई बीमारी है..
ज़िंदगी तूफ़ानों में बीती सारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है
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ये रात कितनी सुहानी लगती है
दिन में तो हर शै बेमानी लगती है
इक खोया-सा सुक़ून देती है
कोई दादी-नानी की कहानी लगती है
ये रात कितनी सुहानी लगती है..
आती है चली जाती है इक इंतज़ार में
कोई बावरी दीवानी लगती है
ये रात कितनी सुहानी लगती है...
चांद सितारों की जगमगाहटें
सच्चे शायर की ज़ुबानी लगती है
पल-दो-पल में ही ढ़ल जाती है
मुझको मेरी पेशानी लगती है
क़ैद करना चाहता हूं इसको
ये मुझको मेरी नादानी लगती है
श्री सुनील कुमार की 2 ग़ज़लें :
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श्री रवि रतलामी जी की एक व्यंजल :
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जीवन में पल प्रतिपल होने लगी हैं स्पर्धाएँ
अब तो ग़ज़ल में भी होने लगी हैं स्पर्धाएँ
बड़े आसरे से गए थे हम यार की गली में
यारों ने बताया वहाँ होने लगी हैं स्पर्धाएँ
जिजीविषा की कहानियाँ तो मत छेड़ो यारों
कफन ले दौड़ने की होने लगी हैं स्पर्धाएँ
मेरे भ्रष्ट शहर के भ्रष्टों का हाल ये है
यहाँ तो बात-बे-बात होने लगी हैं स्पर्धाएँ
खुदा जाने ये कैसा वक्त आ गया है रवि
पिता-पुत्र में जमकर होने लगी हैं स्पर्धाएँ
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श्री शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल' की एक ग़ज़ल :
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श्री एम वर्मा की एक ग़ज़ल :
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हर लहू का रंग तो लाल होता है
फिर भी क्यूँ इतना सवाल होता है
.
कातिलों ने नया दस्तूर निकाला है
पहलू में इनके कोतवाल होता है
.
किसी के लिये मातम का दिन है
किसी के लिये कार्निवाल होता है
.
इंसाँ-इंसाँ करीब होना तो चाहता है
मज़हब पर बीच में दीवाल होता है
.
मासूम परिन्दे ये जानते तो नहीं हैं
हर दाने के नीचे एक जाल होता है
यह मेरी स्वरचित गज़ल है.
____________________________
श्री भूपेंद्र सिंह की एक ग़ज़ल :
| show details 3:31 PM (19 hours ago) |
ग़ज़ल
दर्द की चोट है ये ,इस चोट को कैसे सहिये?//
सारे चेहरों पे पुता है ये उदासी का ज़हर /
उनके चेहरों पे नकाबें हैं ये किस से कहिये ?//
घर में बैठें हैं उजाले भी लूट के डर से /
इतनी दहशत है तो इस मुल्क मे कैसे रहिये ?/
प्यार के सुरमई पत्ते लगे पीले पडने /
दिल की इन धडकनों की धार मे गुमसुम बहिये //
घर मे रहिये या निकल आइये इन सड़कों पे /
मेरी ख्वाहिश है कि इस भीड़ मे तनहा रहिये //
कितनी बातें हैं मगर किस से कहें किस से सुनें ?/
पावों में आदमी के लग गए जैसे पहिये //
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आपकी प्रतिक्रिया , टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी.........
अगली स्पर्धा में एक खास आकर्षण होगा ........
शीघ्र ही देखें अगली पोस्ट में -
धन्यवाद ।
-अलबेला खत्री
मेरी स्वरचित गज़ल
कारखानों में घिसते बचपन की पेंसिल बन जाऊ
चाहत है कांपते हाथो की लाठी बन जाऊ
फ़रिश्ते तो जमी पर रोज़ आया नही करते
कुछ ऐसा करू की गरीब की बरकत बन जाऊ
खुशिया अगर आये तो बाढ़ बन के मैं लुटा दू
गम आये अगर कभी तो मैं सागर बन जाऊ
महलो और झोपड़ो की जो दुनिया है सटी हुई
जोड़ दे जो दोनों को मै वो पगडण्डी बन जाऊ
मजदूर की मेहनत से दिन रात मैं भरती रहू
कोई भूखा न सोये मैं ऐसी थाली बन जाऊ
जब भी टपक के आँखों से मैं कविता बनू
चाहती हु तुम तक पहुच के फिर आंसू बन जाऊ
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जिसे पाने के लिए हम हर गम सहने लगे
हमारी उस मंजिल को लोग, करवा कहने लगे
कैसे समझाऊ खुद को के पानी नही यहाँ
जब हम ही बड़े शौक से, इस धर में बहने लगे
उजड़ी हुई है आज तो ,लेकिन कभी बस जाएगी
सोचकर शायद ये हम , वीरान में रहने लगे
चुभ रहे है आज भी, हमको जो कांटो की तरह
क्या पता सबको भला , कैसे ये सब गहने लगे
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कोई अपना हो ऐसा मुकद्दर नही है
हम बंजारे है हमारा घर नही है
डूब कर ही हम टिक पाएंगे कही पे
इसलिए तुफा का कोई डर नही है
उम्मीद करू न करू एक मुस्कराहट की कभी
वैसे लोग तो कहते है जिंदगी इतनी बंजर नही है
यूद्ध भूमि में खड़ी होकर सोचती हु
युद्ध जितना अन्दर है उतना बाहर नही है
कभी कभी आ ही जाते है आँखों में आँसू
खुद से खुद को छुपा लू इतने हम माहिर नही है
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कैसे करू यकीन अब खुदाई पे
जब जीत जाती है एक बुराई सौ अच्छाई पे
एक वक़्त था जब रोई हु बहुत सबकी बातो से
अब तो हंसी आती है अपनी जग हसाई पे
इमां अपना बेच के नुक्कड़ चौरोहो पे
वो रख रहे है सभा बढती महंगाई पे
बेनकाब हुई जो दुनिया तो आलम ये है की
न चाह कर भी शक होता है किसी की भलाई पे
अभी तक सो रहे थे वो गहरी नींद में
आज जगे है तो सवाल उठाया है हमारी जम्हाई पे
जिन्दगी की गलिया वीरान तब हो गयी
जब हम भी रूठ गए सबकी रुसवाई पे
कटघरे में खड़ा पाया है कमजोर को मैंने
अमीरों पे यहाँ कभी कोई इल्जाम नही आया
जो बिक गया था रात ही सिक्को की छन छन के लिए
सुबह इंसाफ ने बुलाया तो वो आवाम नही आया
सुकून मिलता है मुझे जब गरीब सोता है भर पेट
सियासत की बदौलत कबसे आराम नही आया
रावण से कम कोई क्या होगा आज का नेता
बस उन्हें मारने अब तक कोई राम नही आया
सबने चलाया देश को अपने अपने हिसाब से
किताबो में लिखा संविधान किसी काम नही आया
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