प्यारे ब्लोगर बन्धुओ !
लम्बे अन्तराल के बाद पुनः नमस्कार ।
11 दिनों में 11 कवि-सम्मेलन पकड़ रखे थे,
सब में पहुंचना और काव्य प्रस्तुति देना लाज़िम था,
क्योंकि सभी जगह पैसा भी मिलने वाला था और यश भी,
कुल मिला कर सभी कार्यक्रम सफल रहे और यात्रा सुखद रही ।
आइये अब आज की बात करते हैं -
दो स्पर्धायें पहले सम्पन्न हो चुकी हैं । प्रथम बार डॉ अरुणा कपूर
विजेता रही थीं और दूसरी बार डॉ रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक'
विजेता रहे थे ।
http://albelakhari.blogspot.com/2010/10/blog-post_07.html
http://albelakhari.blogspot.com/2010/10/blog-post_11.html
देखें..... अब तीसरी बार कौन बाज़ी मारता है ?
आज आयोजित करते हैं "ग़ज़ल स्पर्धा"
इस स्पर्धा के लिए ऐसी ग़ज़लें आमन्त्रित की जा रही हैं जो
ग़म-ए-जाना नहीं, ग़म-ए-दौराँ से बाबस्ता हों, आज की ज़िन्दगी
से जुड़ी हों और अभी तक किसी गायक ने गाई नहीं हों क्योंकि
अगर मामला जम गया तो इन्हीं ग़ज़लों का एक audio c d भी
बना कर रिलीज़ किया जाएगा ।
यह स्पर्धा केवल स्वरचित/मौलिक ग़ज़लों के लिए है । इसलिए
कृपया इसमें स्वरचित ग़ज़लें ही भेजें ।
ग़ज़ल का मीटर, बहर, मौजू और तेवर कुछ भी हो सकता है ।
इन पर किसी प्रकार का कोई आग्रह या प्रतिबन्ध नहीं है । क्यों ?
क्योंकि ये स्पर्धायें हम रचनाकारों को जांचने के लिए नहीं बल्कि
प्रोत्साहन के लिए कर रहे हैं । हम यहाँ किसी की सृजन क्षमता का
इम्तेहान लेने नहीं बैठे हैं बल्कि उनकी क्षमताओं को और उनकी
लेखनी को सलामी देने का प्रयास कर रहे हैं
हमारा लक्ष्य किसी की प्रतिभा से मौज करना नहीं, अपितु
प्रतिभा को मज़ा देना है ।
पिछली स्पर्धाओं में प्रविष्टियाँ बहुत कम आयीं थीं, क्योंकि
बहुत से वरिष्ठ लोगों को ये काम पसन्द नहीं आया होगा कि
कल का एक छिछोरा छोकरा 'हिन्दी ब्लोगिंग' में प्राण फूंकने
की कोशिश करे यानी विभिन्न स्पर्धायें आयोजित करके, अन्य
फ़ालतू बातों से ध्यान हटा कर सृजन की ओर आकर्षित करे व
पुराने दादा लोग उसका अनुसरण करे । लेकिन मुझ पर इसका
कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला ...यों तो अधिकाधिक प्रविष्टियों का
अभीप्सु हूँ परन्तु ये भी कहता हूँ कि यदि कुल मिला कर एक
प्रविष्टि भी प्राप्त हुई तो भी स्पर्धा जारी रहेगी और परिणाम
घोषित होगा ।
शर्तें और नियम वही हैं जो पहले थीं बस एक अन्तर इस बार
किया गया है कि इनामी राशि को बढ़ा कर रूपये 1100 कर
दिया है ।
तो देर किस बात की ?
तुरन्त अपनी ग़ज़ल या ग़ज़लें भेज दें ।
आपके पास एक सप्ताह का समय है
और आपका समय शुरू होता है ..अब अर्थात अभी !
जो लोग अभी तक पंजीकृत नहीं हुए हैं वे निम्नांकित लिंक कोड
पर जाकर तुरन्त अपना पंजीकरण पूर्ण करलें साथ ही वहीँ
वेब साईट के home page पर प्रदर्शित निम्नांकित लिंक कोड
अपने ब्लॉग या वेब साईट पर लगालें । ये ज़रूरी भी है और आपके
लिए बहुत फ़ायदेमंद भी।
कोशिश कीजिये कि इस बार आप 1100 का पुरस्कार जीतें ताकि
निकट भविष्य में इसे 11000 रूपये का पुरस्कार बनाए जाने की
मेरी योजना सफल हो सके ।
आपका विनम्र धन्यवाद,
-अलबेला खत्री
hindi hasyakavi sammelan in mangalore by MRPL
-
शानदार, शानदार, शानदार …………………
शानदार और जानदार रहा मंगलूर रिफ़ाइनरी एंड पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड द्वारा
राजभाषा विभाग के तत्वाधान में डॉ बी आर पाल द्वारा आ...
10 years ago
28 comments:
[मूल्यांकन से बाहर पोस्ट]
यह "लाईफ चंजिंग अमाउंट" यहाँ बहुत कुछ चेंज कर देगा.
हर स्वस्थ प्रतियोगिता अपेक्षित है बस वो आत्म-प्रचार तक सीमित न हो
उस्ताद जी !
आपका अभिनन्दन करते हुए मैं आपको और समूची ब्लोगर बिरादरी को यकीं दिलाना चाहता हूँ कि यहाँ आत्म-प्रचार जैसा कुछ है भी नहीं, होगा भी नहीं............
ये केवल अच्छे रचनाकारों तक पहुँचने, उनके बारे में जानने और उन्हें प्रोत्साहित व सम्मानित करने का मामूली प्रयास भर है
मेरा मानना है कि सरस्वती कि अनुकम्पा से से कला ने और मंच ने मुझे जो यश और सफलता दी है क्यों न उसे आपने लोगों में बाँट कर उसका आनन्द दोगुना किया जाये ............
बाकी आप सब समझदार हैं...मैं क्या कहूँ ?
-अलबेला खत्री
सचमुच आप बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं, इससे नयी प्रतिभाओं को रचनात्मक फलक प्राप्त होगा, बधाईयाँ और शुभकामनाएं !
अलबेला जी, आपका कार्य वास्तव में सराहनीय है!
इस बढ़िया एवं नेक प्रयास के लिए बहुत-बहुत बधाई...
अपने लिए तो बस यही कह सकता हूँ कि..."अंगूर खट्टे हैं" क्योंकि मेरी लिए गज़ल लिखना वैसे ही जैसे..."नाच ना जानने वाले के लिए आँगन टेढा"...
अब खिसियानी बिल्ली के माफिक मैं खम्बा नोचने से बढ़िया तो यही रहेगा कि मैं ये ठान लूँ कि...
जिस गली में हास्य/व्यंग्य का घर ना हो...उस गली से हमको गुजरना नहीं :-(
कल शब ख़्वाबों को टिमटिमाते देखा
गीता-कुरान को इक-दूजे से हाथ मिलाते देखा..
मंदिर के आसन पर बैठा था इक नमाज़ी
मस्जिद के द्वारे इक पुजारी को जाते देखा...
गली से गुज़र रहा था इक मस्त-कलंदर
बच्चों की भीड़ में ख़ुद को खिलखिलाते देखा...
होटलों के बाहर भूख से लड़ते भिखारी
होटलों के अंदर जिस्मों को आज़माते देखा....
...........................................
ज़िंदगी तूफ़ानों में बीती सारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है
बारहा डूबते-डूबते बचे हैं
बारहा मौजों में क़श्ती उतारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है...
आसमां तो फिर भी आसमां है
अब तो आसमां से भी आगे जाने की तैयारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है.....
जिसे चाहे अपना बना लें,
जिसे चाहे दिल से लगा लें,
इसे मेरा जुनून समझो या समझो कोई बीमारी है..
ज़िंदगी तूफ़ानों में बीती सारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है
................................................
ये रात कितनी सुहानी लगती है
दिन में तो हर शै बेमानी लगती है
इक खोया-सा सुक़ून देती है
कोई दादी-नानी की कहानी लगती है
ये रात कितनी सुहानी लगती है..
आती है चली जाती है इक इंतज़ार में
कोई बावरी दीवानी लगती है
ये रात कितनी सुहानी लगती है...
चांद सितारों की जगमगाहटें
सच्चे शायर की ज़ुबानी लगती है
पल-दो-पल में ही ढ़ल जाती है
मुझको मेरी पेशानी लगती है
क़ैद करना चाहता हूं इसको
ये मुझको मेरी नादानी लगती है
...."ग़ज़ल स्पर्धा" सफल हो!...अनेक हार्दिक शुभ-कामनाओं सहित....
भाई आपके विचार व प्रयास सराहनीय हैं. आप सफल हों शुभकामनाएं.
आदरणीय खत्री जी आपकी साईट पर रजिस्टर होने के बाद भी रचना कहां भेजनी है इसका कोई पता ठिकाना नहीं सुझाया गया है सबमिट आर्टिकल में क्िलक करने पर साइट ही बंद हो जाती है। आपकी साईट का नक्शा भी समझ नहीं आ रहा। सहायता करें। गजल कहां भेजें।
@बंधुवर राजे शा जी !
www.albelakhatri.com पर रजिस्टर हो कर, प्रोफाइल पूरी तरह भरने के बाद वहां से यह लिंक कोड आपको अपने ब्लॉग पर लगाना है
उसके बाद आप अपनी ग़ज़लें टिप्पणी के रूप में उसी पोस्ट पर भेज दीजिये जिसमे ग़ज़लें आमंत्रित की गई हैं
आगे भी हर स्पर्धा में ऐसा ही होगा, जिस पोस्ट में रचनाएं मंगाई जाये, उसी में कमेन्ट बॉक्स में आपको भेजनी है
वैसे वेब साईट के होम पेज पर भी सब निर्देश और सूचनाएं हैं HOW ITS WORKS और FAQ पर आप सब देख सकते हैं
आपका स्वागत है और आपकी रचनाओं का भी.............
आप इस लिंक पर ग़ज़लें भेज दीजिये http://albelakhari.blogspot.com/2010/10/1100.html
धन्यवाद,
-अलबेला खत्री
पेश है एक स्वरचित गजल!
--
मित्र का साथ निभाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
एक दिन मौज मनाने से क्या भला होगा?
रोज दीवाली मनाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
इन बनावट के उसूलों में धरा ही क्या है?
प्रीत हर दिल में जगाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
क्यों खुदा कैद किया दैर-ओ-हरम में नादां,
रब को सीने में सजाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
सिर्फ पुतलों के जलाने से फयदा क्या है?
दिल के रावण को जलाओ तो कोई बात बने।
राम सा खुद को बनाओ तो कोई बात बने।।
पेश है एक और स्वरचित गजल!
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अन्धे कुएँ में पैंठकर, ऐसे न तुम ऐंठा करो,
झील-तालाबों की दुनिया और है।
बन्द कमरों में न तुम, हर-वक्त यूँ बैठा करो,
बाग की ताजा फिजाँ कुछ और है।
स्वर्ण-पिंजड़े में कभी शुक को सुकूँ मिलता नही,
सैर करने का मज़ा कुछ और है।
जुल्म से और जोर से अपना नहीं बनता कोई
प्यार करने की रज़ा कुछ और है।
गाँव में रहकर रिवाजों-रस्म को मत तोड़ना,
प्रीत की होती सज़ा कुछ और है।
यह गजल भी मेरी ही रची हुई है!
--
आप आकर मिले नहीं होते।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
घर में होती चहल-पहल कैसे,
शाख पर घोंसले नहीं होते।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
गर न मिलती नदी समन्दर से,
मौज़ के मरहले नही होते।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
सुख की बारिश अगर नही आती,
गुल चमन में खिले नहीं होते।।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
दिल मे उल्फत अगर नही होती,
प्यार के हौंसले नहीं होते।।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
हुस्न में गर कशिश नही होती,
इश्क के काफिले नही होते।
तो शुरू सिलसिले नही होते।।
यह गजल भी तो मेरी ही है!
--
जो परिन्दे के पर कतरता है।
वो इबादत का ढोंग करता है।।
जो कभी बन नही सका अपना,
दम वही दोस्ती का भरता है।
दीन-ईमान को जो छोड़ रहा,
कब्र में पाँव खुद ही धरता है।
पार उसका लगा सफीना है,
जो नही ज़लज़लों से डरता है।
इन्तहा जिसने जुल्म की की है,
वो तो कुत्ते की मौत मरता है।
मेरी यह गजल भी तो है प्रतियोगिता के लिए!
--
सितारों के बिना सूना गगन है।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
भजन-पूजन, कथा और कीर्तन हैं,
सुधा के बिन अधूरा आचमन है।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
नजारे हैं, नजाकत है, नफासत है,
अधूरा नेह बिन चैनो-अमन है।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
सफर में साथ कब देते मुसाफिर,
अकेले ही सभी करते गमन हैं।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
लुभाते रंग वाले वस्त्र सबको,
मेरी तकदीर में सादा कफन है।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
बना वर्चस्व सागर का तभी तक,
जहाँ में जब तलक गंगो-जमुन हैं।
बहारों के बिना सूना चमन है।।
गजलों का मुकाबला हो यो यह मेरी पसंदीदा गजल भी पेश है!
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कोई फूलों का प्रेमी है,
कोई कलियों का दीवाना!
मगर हम उसके आशिक हैं,
वतन का हो जो परवाना!!
जवाँमर्दी उसी की है,
जो रक्खे आग को दिल मे,
हमारी शान का परचम था,
ऊधम सिंह वो मरदाना!
मुमताजमहल लाखों देंगे,
बदले में एक पद्मिनी के,
निज आन-बान की रक्षा को,
देना प्रताप सा महाराणा!
माँ सरस्वती वीणा रखकर,
धारण त्रिशूल कर, दुर्गा बन,
रिपु-दमन कला में, हे माता!
पारंगत मुझको कर जाना!
मेरी यह गजल भी देख लीजिए!
--
खिल रहे हैं चमन में हजारों सुमन,
भाग्य कब जाने किस का बदल जायेगा!
कोई श्रृंगार देवों का बन जायेगा,
कोई जाकर के माटी में मिल जायेगा!!
कोई यौवन में भरकर हँसेगा कहीं,
कोई खिलने से पहले ही ढल जायेगा!
कोई अर्थी पे होगा सुशोभित कहीं,
कोई पूजा की थाली में इठलायेगा!
हार पुष्पांजलि का बनेगा कोई,
कोई जूड़े में गोरी के गुँथ जायेगा!
पेशे खिदमद है मेरी यह गजल!
--
दूज का चन्दा गगन में मुस्कराया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
कर लिए अल्लाह ने रोजे कुबूल,
अपने बन्दों को खुशी का दिन दिखाया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
अम्न की खातिर पढ़ी थीं जो नमाजे,
उन नमाजों का सिला बदले में पाया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
छा गई गुलशन में जन्नत की बहारें,
ईद ने सबको गले से है मिलाया।
साल भर में ईद का त्यौहार आया।।
यह भी तो मेरी ही गजल है!
--
पड़ गईं जब पेट में दो रोटियाँ,
बेजुबानों में जुबानें आ गईं।
बस गईं जब बीहड़ों में बस्तियाँ,
चल के शहरों से दुकानें आ गईं।
मन्दिरों में आरती होने लगीं,
मस्जिदों में भी नमाजें आ गईं।
कंकरीटों की फसल उगने लगी,
नस्ल नूतन कहर ढाने आ गई।
गगनचुम्बी शैल हिम तजने लगे,
नग्नता सूरत दिखाने आ गईं।
एक यह भी देख लीजिए! यह बी मेरी ही गजल है!
--
हम अनोखा राग गाने में लगे हैं।
साज हम नूतन बजाने में लगे हैं।।
भूल कर अब तान वीणा की मधुर,
मान माता का घटाने में लगे हैं।
मीर-ग़ालिब के तराने भूल कर,
ग़ज़ल का गौरव मिटाने में लगे हैं।
दब गया संगीत है अब शोर में,
कर्णभेदी सुर सजाने में लगे हैं।
छन्द गायब, लुप्त हैं शब्दावली,
पश्चिमी धुन को सुनाने में लगे हैं।
गीत की सारी मधुरता लुट गई,
हम नए नगमें बनाने में लगे हैं।
हम धरा के पेड़-पौधे काट कर,
फसल काँटों की उगाने में लगे हैं।
छोड़ कर रसखान वाले अन्न को,
आज हम कंकड़ पचाने में लगे हैं।
बात हो जब गजलों की तो हम भला पीछे कहाँ हटने वाले हैं!
पेश है मेरी यह गजल!
--
छल-फरेबी के हाट में जाकर,
भीड़ में नर तलाश करते हो!
ऊँचे महलों से खौफ खाते हो,
नीड़ में ज़र तलाश करते हो!
दौर-ए-मँहगाई के ज़माने में,
खीर में गुड़ तलाश करते हो!
ज़ाम दहशत के ढालने वालो,
पीड़ में सुर तलाश करते हो!
और अन्त में पेशेखिदमत है मेरी यह मुकम्मल ग़ज़ल!
--
दीन-दुखियों के दुख से हों आँखें सजल।
है वही जिन्दगी की मुकम्मल गजल।।
झूठी रस्म-औ-रवायत से जो लड़ सके,
जो ज़माने के दस्तूर को दे बदल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
कल तलक हो रहे थे जो जुल्म-ओ-सितम,
अब दिलों में दिखाई न दे वो गरल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
दें रसीले फलों को उगें वो शजर,
कोई बोये न अब कण्टकों की फसल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
शुद्ध गंगा को इतनी न मैली करो,
इसमें डालो न अब गन्दगी और मल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
मिटने पाये न अब सम्पदा देश की,
होने पाये न दूषित धरातल विमल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
एकता-भाईचारा सलामत रहे,
हों दिलों में सभी के मुहब्बत तरल।
है वही जिन्दगी की ……………….।।
हर लहू का रंग तो लाल होता है
फिर भी क्यूँ इतना सवाल होता है
.
कातिलों ने नया दस्तूर निकाला है
पहलू में इनके कोतवाल होता है
.
किसी के लिये मातम का दिन है
किसी के लिये कार्निवाल होता है
.
इंसाँ-इंसाँ करीब होना तो चाहता है
मज़हब पर बीच में दीवाल होता है
.
मासूम परिन्दे ये जानते तो नहीं हैं
हर दाने के नीचे एक जाल होता है
यह मेरी स्वरचित गज़ल है.
मेरी स्वरचित गज़ल
कारखानों में घिसते बचपन की पेंसिल बन जाऊ
चाहत है कांपते हाथो की लाठी बन जाऊ
फ़रिश्ते तो जमी पर रोज़ आया नही करते
कुछ ऐसा करू की गरीब की बरकत बन जाऊ
खुशिया अगर आये तो बाढ़ बन के मैं लुटा दू
गम आये अगर कभी तो मैं सागर बन जाऊ
महलो और झोपड़ो की जो दुनिया है सटी हुई
जोड़ दे जो दोनों को मै वो पगडण्डी बन जाऊ
मजदूर की मेहनत से दिन रात मैं भरती रहू
कोई भूखा न सोये मैं ऐसी थाली बन जाऊ
जब भी टपक के आँखों से मैं कविता बनू
चाहती हु तुम तक पहुच के फिर आंसू बन जाऊ
jindalshweta.blogspot.com
जिसे पाने के लिए हम हर गम सहने लगे
हमारी उस मंजिल को लोग, करवा कहने लगे
कैसे समझाऊ खुद को के पानी नही यहाँ
जब हम ही बड़े शौक से, इस धर में बहने लगे
उजड़ी हुई है आज तो ,लेकिन कभी बस जाएगी
सोचकर शायद ये हम , वीरान में रहने लगे
चुभ रहे है आज भी, हमको जो कांटो की तरह
क्या पता सबको भला , कैसे ये सब गहने लगे
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कोई अपना हो ऐसा मुकद्दर नही है
हम बंजारे है हमारा घर नही है
डूब कर ही हम टिक पाएंगे कही पे
इसलिए तुफा का कोई डर नही है
उम्मीद करू न करू एक मुस्कराहट की कभी
वैसे लोग तो कहते है जिंदगी इतनी बंजर नही है
यूद्ध भूमि में खड़ी होकर सोचती हु
युद्ध जितना अन्दर है उतना बाहर नही है
कभी कभी आ ही जाते है आँखों में आँसू
खुद से खुद को छुपा लू इतने हम माहिर नही है
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कैसे करू यकीन अब खुदाई पे
जब जीत जाती है एक बुराई सौ अच्छाई पे
एक वक़्त था जब रोई हु बहुत सबकी बातो से
अब तो हंसी आती है अपनी जग हसाई पे
इमां अपना बेच के नुक्कड़ चौरोहो पे
वो रख रहे है सभा बढती महंगाई पे
बेनकाब हुई जो दुनिया तो आलम ये है की
न चाह कर भी शक होता है किसी की भलाई पे
अभी तक सो रहे थे वो गहरी नींद में
आज जगे है तो सवाल उठाया है हमारी जम्हाई पे
जिन्दगी की गलिया वीरान तब हो गयी
जब हम भी रूठ गए सबकी रुसवाई पे
कटघरे में खड़ा पाया है कमजोर को मैंने
अमीरों पे यहाँ कभी कोई इल्जाम नही आया
जो बिक गया था रात ही सिक्को की छन छन के लिए
सुबह इंसाफ ने बुलाया तो वो आवाम नही आया
सुकून मिलता है मुझे जब गरीब सोता है भर पेट
सियासत की बदौलत कबसे आराम नही आया
रावण से कम कोई क्या होगा आज का नेता
बस उन्हें मारने अब तक कोई राम नही आया
सबने चलाया देश को अपने अपने हिसाब से
किताबो में लिखा संविधान किसी काम नही आया
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यह हैं मेरी आज की लिखी हुई ताजा ग़ज़ल!
ईमान ढूँढने निकला हूँ, मैं मक्कारों की झोली में।
बलवान ढूँढने निकला हूँ, मैं मुर्दारों की टोली में।
ताल ठोंकता काल घूमता, बस्ती और चौराहों पर,
कुछ प्राण ढूँढने निकला हूँ, मैं गद्दारों की गोली में।
आग लगाई अपने घर में, दीपक और चिरागों ने,
सामान ढूँढने निकला हूँ, मैं अंगारों की होली में।
निर्धन नहीं रहेगा कोई, खबर छपी अख़बारों में,
अनुदान ढूँढने निकला हूँ, मैं सरकारों की बोली में।
सरकण्डे से बने झोंपड़े, निशि-दिन लोहा कूट रहे,
आराम ढूँढने निकला हूँ, मैं बंजारों की खोली में।
यौवन घूम रहा बे-ग़ैरत, हया-शर्म का नाम नहीं,
मुस्कान ढूँढने निकला हूँ, मैं बाजारों की चोली में।
जीवन में पल प्रतिपल होने लगी हैं स्पर्धाएँ
अब तो ग़ज़ल में भी होने लगी हैं स्पर्धाएँ
बड़े आसरे से गए थे हम यार की गली में
यारों ने बताया वहाँ होने लगी हैं स्पर्धाएँ
जिजीविषा की कहानियाँ तो मत छेड़ो यारों
कफन ले दौड़ने की होने लगी हैं स्पर्धाएँ
मेरे भ्रष्ट शहर के भ्रष्टों का हाल ये है
यहाँ तो बात-बे-बात होने लगी हैं स्पर्धाएँ
खुदा जाने ये कैसा वक्त आ गया है रवि
पिता-पुत्र में जमकर होने लगी हैं स्पर्धाएँ
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