महक ये
उसी के मन की है
जो चली आ रही है
केश खोले
दहक ये
उसी बदन की है
जो दहका रही है
हौले हौले
महल मोहब्बत का आज सजा संवरा है
आग भड़कने का आज बहुत खतरा है
डर है कहीं आज
खुल न जाए राज़
क्योंकि मैं आज थोड़ा सुरूर में हूँ
उसी की मोहब्बत के गुरूर में हूँ
जो है मेरा अपना...........
सदा सदा से ..........
मेरा मुर्शिद
मेरा राखा
मेरा पीर
मेरा रब
मेरा मालिक
मेरा सेठ
मेरा बिग बोस
वो आज उतरा है भीतर मेरी टोह लेने
मैं सहमा खड़ा हूँ फिर इम्तेहान देने
जानते हुए कि फिर रह जाऊंगा पास होने से
आम फिर महरूम रह जाएगा ख़ास होने से
लेकिन मन लापरवाह है
क्योंकि वो शहनशाह है
लहर आएगी, तो मेहर कर देगा
मुझे भी अपने नूर से भर देगा
मैं मुन्तज़िर रहूँ ये काफ़ी है
मैं मुन्तज़िर रहूँ ये काफ़ी है
मैं मुन्तज़िर रहूँ ये काफ़ी है
हास्यकवि सम्मेलन राजकोट में अलबेला खत्री मंचस्थ कवि मित्रों के साथ |
1 comments:
बहुत बढ़िया!
आभार आपका...!
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