देह की गंध
एक सी नहीं रहती
बदलती रहती है रंग
बदलते समय के संग
शैशव की गंध श्वेत होती है
किशोरवय में गुलाबी और यौवन में सुर्ख़ होती है
जो
अधेड़ावस्था में जोगिया होती हुई
बुढ़ापे में पीली हो जाती है
और
मौत पर काली हो जाती है
काली पड़ चुकी गंध में कोई और रंग चढ़ नहीं सकता
इसीलिए तो मानव का वय-रथ आगे बढ़ नहीं सकता
योनिद्वार से निकल कर
हरिद्वार तक की यात्रा करने वाला मनुष्य
पेट के नीचे से जन्म लेता है
और
जीवन भर पेट व पेट के नीचे की क्षुधा
भरने का प्रयास करता है
मगर अफ़सोस !
न तो पेट भर पाता है सदा के लिए
न ही पेट के नीचे की आग बुझा पाता है
घर्षण से लेकर स्खलन तक
अर्थात
सम्भोग से ले समाधि तक
तमाम रंग उभरते हैं उभारों की तरह
और
जलाते हैं मनुष्य को अंगारों की तरह
देह जब तक जीवित रहती, वासना में जलती है
इक धधकती आग हरदम तहे-दिल में पलती है
ये गाड़ी ज़ीस्त की ऐसे चलती है, ऐसे ही चलती है
-अलबेला खत्री
एक सी नहीं रहती
बदलती रहती है रंग
बदलते समय के संग
शैशव की गंध श्वेत होती है
किशोरवय में गुलाबी और यौवन में सुर्ख़ होती है
जो
अधेड़ावस्था में जोगिया होती हुई
बुढ़ापे में पीली हो जाती है
और
मौत पर काली हो जाती है
काली पड़ चुकी गंध में कोई और रंग चढ़ नहीं सकता
इसीलिए तो मानव का वय-रथ आगे बढ़ नहीं सकता
योनिद्वार से निकल कर
हरिद्वार तक की यात्रा करने वाला मनुष्य
पेट के नीचे से जन्म लेता है
और
जीवन भर पेट व पेट के नीचे की क्षुधा
भरने का प्रयास करता है
मगर अफ़सोस !
न तो पेट भर पाता है सदा के लिए
न ही पेट के नीचे की आग बुझा पाता है
घर्षण से लेकर स्खलन तक
अर्थात
सम्भोग से ले समाधि तक
तमाम रंग उभरते हैं उभारों की तरह
और
जलाते हैं मनुष्य को अंगारों की तरह
देह जब तक जीवित रहती, वासना में जलती है
इक धधकती आग हरदम तहे-दिल में पलती है
ये गाड़ी ज़ीस्त की ऐसे चलती है, ऐसे ही चलती है
-अलबेला खत्री
1 comments:
देह जब तक जीवित रहती, वासना में जलती है | लेकिन किसकी और क्यों?
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