तुम
न शुभ हो
न शगुन हो
न मुहूर्त हो
फिर भी तुम इस समाज की
इक ज़रूरत हो
ज़रूरत भी ऐसी जो टाली नहीं जा सकती
तुम्हारी ये बस्ती
इस शहर से निकाली नहीं जा सकती
क्योंकि तुम
तन और मन की तुष्टि का
सम्पूर्ण सामान हो
अरे!
अलगाव के इस युग में मानवीय एकता का
तीर्थ स्थान हो
हाँ हाँ
तीर्थ स्थान
जहाँ हिन्दू हिन्दू नहीं रहता
मुस्लिम मुस्लिम नहीं रहता
इसाई इसाई नहीं रहता
बनिया बनिया नहीं रहता
पुजारी पुजारी नहीं रहता
कसाई कसाई नहीं रहता
रहता है शरीर
जो आता है और शान्त होकर चला जाता है ॥
रात का मुसाफ़िर
दिन निकलते ही निकल जाता है
इज्ज़त का दुशाला ओढ़ कर
तुम्हारे हाथों में चन्द रूपये छोड़ कर
तुम
अगले ग्राहक के ख्यालों में खो जाती हो
देह थक चुकी है
इसलिए बैठे बैठे ही सो जाती हो
एकबार फिर उठने के लिए
यानी रात भर लुटने के लिए
ये तुम्हारा कर्म है
इसलिए धर्म है
कोई पाप नहीं है
तुम्हारे आंसू ....
तुम्हारी पीड़ा ......
और तुम्हारी वेदना को नाप सके
दुनिया में ऐसा
कोई माप नहीं है
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ख्यालों में खो जाती हो
देह थक चुकी है
इसलिए बैठे बैठे ही सो जाती हो
एकबार फिर उठने के लिए
यानी रात भर लुटने के लिए
ये तुम्हारा कर्म है
इसलिए धर्म है
कोई पाप नहीं है
तुम्हारे आंसू ....
तुम्हारी पीड़ा ......
और तुम्हारी वेदना को नाप सके
दुनिया में ऐसा
कोई माप नहीं है
बदनाम नायिका के दर्द को वाकई आपकी कविता माप गयी है...
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