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अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है बल्कि भड़भून्जे की आँख भी फोड़ सकता है --- अथ श्री हास्य हंगामा कथा



राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय स्तर पर सुप्रसिद्ध कार्यक्रम हास्य हंगामा हिन्दी

हास्य जगत का एक ऐसा अनूठा, अभिनव, अद्भुत अद्वितीय सांस्कृतिक

कार्यक्रम है जिसे पूरे परिवार के साथ बैठ कर देखा और सुना जा सकता है।

हास्यगीतों, कविताओं, लतीफ़ों सामयिक टिप्पणियों से लबरेज़ मनोरंजक

कार्यक्रम हास्य हंगामा की स्थापना एक ऐसे समय में हुई जब इसकी सर्वाधिक

आवश्यकता थी



वो दौर हिन्दी हास्य कवि-सम्मेलनों का सर्वाधिक शर्मनाक और नाजुक दौर

था जब केवल अजीबोगरीब नामों वाले बल्कि भौंडी आवाज़ों वाले, बेढंगी

शक्लों वाले तथा उल्लू की तरह आँखें घुमा घुमा कर हास्य पैदा करने वाले कुछ

ऐसे लोग हिन्दी कविता के मंच पर घुस आये थे जिन्हें मिमिक्री अथवा कॉमेडी

के क्षेत्र में सफलता नहीं मिली थी. हिन्दी के दुर्भाग्य से ऐसे लोग देखते ही देखते

अखिल भारतीय कवि-सम्मेलनों के स्टार पोएट बन गये. वे स्टार पोएट इसलिए

बन गये क्योंकि एक तो वे दिल्ली या दिल्ली के आसपास रहते थे जिसके

फलस्वरूप दूरदर्शन के कार्यक्रमों में आने और दिखने का मौका उन्हें आसानी से

मिल जाता था. दूसरा कारण ये था कि दूरदर्शन के अलावा और कोई टी. वी.

चैनल उन दिनों था ही नहीं, इसलिए उनकी कविताएं, उनकी मुखाकृतियां और

उनकी प्रस्तुति देश भर में घर-घर पहुंच गईं और लोकप्रिय हो गईं। हालांकि उनके

पास कविता तो थी नहीं लेकिन कोई अपनी मोटी थुलथुल काया से हँसाता,

कोई अपनी घरवाली यानी लुगाई को कैश कर रहा था. सड़कछाप चुटकुलों,

अश्लील टिप्पणियों तथा घरवाली को प्रतीक बना कर समूची नारी जात का गन्दा

मखौल उड़ाने वाले उन मसखरों से आयोजक वर्ग तो ख़ुश था लेकिन श्रोता और

दर्शक वर्ग त्रस्त था. साहित्यप्रेमी हतप्रभ थे, बुद्धिजीवी असहाय थे और हिन्दी

प्रचारकों के मुख पर हवाइयां उड़ रही थीं. लेकिन कोई कुछ कर नहीं पा रहा

था. क्योंकि अर्थप्रधान इस युग में कविता भी एक बाज़ारू चीज़ हो कर रह गई है.

आयोजन कैसा होगा, ये आयोजन समिति की रुचि पर निर्भर होता है, दर्शक की

हाय तौबा पर नहीं



सन 1992-93 आते-आते तो स्थिति और भी लज्जाजनक हो गई थी. हास्य की

आड़ में शाब्दिक व्यभिचार का बोलबाला बढ़ जाने के कारण मंच पर मनोरंजन

का स्तर लगातार गिर रहा था और ज्य़ादातर प्रोग्राम असफल हो रहे थे। क्योंकि

हास्य कवि सम्मेलनों के पूरे बाज़ार पर चन्द नामी गिरामी महंगे कवियों (?)

के गिरोह ने कब्ज़ा कर रखा था जिनकी बार-बार वही घिसी पिटी कविताएं सड़े

हुए चुटकुले सुन सुन कर लोग बोर हो रहे थे. उन्हें कुछ नया सुनने देखने की

प्यास थी लेकिन हर बार उन्हें सुना सुनाया कैसेट ही सुनने को मिलता




तथाकथित बड़े कवियों की लामबन्दी और मिलीभगत के कारण नये

प्रतिभाशाली कवि/ कवयित्रियों को मंच पर आने का मौका ही नहीं मिल रहा था.

इसलिए हास्य कवि - सम्मेलनों की संख्या में तेजी से गिरावट रही थी. वे

खत्म होने की कगार पर थे. क्योंकि अपनी लोकप्रियता खो रहे थे और लगातार

गर्त में जा रहे थे।



तब हास्य कवि अलबेला खत्री ने भारतीय संस्कृति की इस प्राचीन परंपरा को

बचाने देश-विदेश में फिर से मान-सम्मान तथा लोकप्रियता दिलाने के लिए

अनेक नये, प्रतिभाशाली कवियों की टीम बनाई और हास्य कवि सम्मेलन को

एक नया स्वरूप दे कर नया नाम भी दिया हास्य हंगामा




हास्य हंगामा ने जल्दी ही सिद्ध कर दिया कि सिर्फ बड़ा बजट खर्च करके या बड़े

नामों के सहारे ही प्रोग्राम सफल नहीं होता, बल्कि प्रोग्राम की सफलता के लिए

आमंत्रित कवियों की काव्य-प्रस्तुति भी अच्छी होनी चाहिए जो कि नये चेहरों के

ज़रिये कम बजट में भी हो सकती है और ज्य़ादा अच्छी हो सकती है




हास्य हंगामा का पहला शो जैन सोश्यल ग्रुप मुंबई के लिए चैम्बूर में 23 जुलाई

1993 को किया गया जो कि सुपरहिट रहा. फिर तो लगातार शो होते रहे और अब

तक 1900 से अधिक शो सम्पन्न हो चुके हैं जिनमें से 1506 भारत में और 412

भारत से बाहर अनेक देशों में हुए हैं.



हास्य हंगामा ने लोगों को कम खर्च में उत्तम मनोरंजन देकर, हिन्दी तथा

हिन्दी हास्य कवि-सम्मेलन के प्रचार-प्रसार में भरपूर योगदान दिया है और

आगे भी यह सिलसिला जारी है।



3 comments:

राजीव तनेजा January 7, 2010 at 10:20 PM  

बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं आप... लगे रहे...जमे रहें ..डटे रहें

राज भाटिय़ा January 7, 2010 at 10:32 PM  

आप से सहमत है

संगीता पुरी January 8, 2010 at 8:33 AM  

जानकारी अच्‍छी लगी .. आपको बधाई !!

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