माना तेरी मेरी कुछ
लगती नहीं है पर
किसी की बहन - बेटी वो भी कहलाती है
उदर की भूख के
तन्दूर में जो मोम सम
तड़प-तड़प, तिल - तिल जली जाती है
सीने के नासूरों से है
बे-ख़बर वो मगर
गैरों के बदन, दोनों हाथों सहलाती हैं
यही तो समाज उसे
रात भर भोगता है
इसी ही समाज में वो वेश्या कहलाती है
16 comments:
औरत की विडंवना की तस्वीर बहुत बडिया धन्यवाद्
क्या कहा जा सकता है अलबेला जी,समाज की इस कड़ुवी सच्चाई पर अफ़्सोस है।
वाह जी वाह , बहुत खूब !
jhakjhor kar pathrili zameen par patak de aesa kadava sach
गजब कर दिया अलबेला जी, सच मानियेँ मुझे आपकी ये सर्वश्रेस्ठ रचना लगी । बहुत ही सुन्दर तरिके से चित्रण किया है आपने औरत का , और जिस तरह से आप ने उनके दर्द को बयाँ किया काबिले तारीफ है।
बहुत ही संवेदनशील और सार्थक कविता है.. सर..
अलबेला जी,
अंतरतम को झकझोरती हुई कविता नश्तर सी चुभी रह गई।
यह सच कहा गया है कि हास्य संवेदनाओं की चरम स्थिति पर निर्मित होता है, नही तो एक हास्यकवि इतनी मार्मिक और संवेदनाओं से भरी कविता?
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
एक कड़वी सच्चाई
बी एस पाबला
बहुत बढ़िया बड़े भाई ...............क्या आईना दिखाया है समाज को !
काश हर कोई ऐसा सोचता !!
बहुत सुन्दर्………………………
अलबेला जी बहुत अच्छी बात कही, इन सब की मजबुरियो का लाभ ऊठाने वाले कभी अपने घर मै अपनी बहन ओर बेटियो को भी देखे,धन्यवाद इस को यहां लिखने के लिये
रिस्तों का सटीक चित्रण!
yadi kahaa jaaye ki ye DARD hai NARI ka to galat nahin. CHINTANPARAK........
is par wah nahin AAH nikalti hai.
तेरी मेरी कुच न लगते हुए भी वह हमारी बहन बेटी भाभी सब कुछ होती है । कोई सोचे तब तो ।
औरत तेरी यही कहानी...आंचल में है दूध और आँखों में है पानी
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