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Albela Khatri

हास्य कवि अलबेला खत्री की प्रभाष जोशी को काव्यांजलि - ठीक समझे आप... हम पत्रकार हैं !




हाँ भाई हाँ, कठिन है

बहुत कठिन है सत्य को सत्यापित करना

-------------------------स्थापित करना

----------------------अधिष्ठापित करना

क्या व्याख्या करें कि कैसा है

खड् की धार पे चलने जैसा है

आत्मघात करने जैसा है


दुःसाहसिक है

अत्यन्त दुःसाहसिक है झूठ का विरोध करना

--------------
----------------निरोध करना

------------------------------सशोध करना

लेकिन हम करते हैं

और

मुक़म्मिल तौर पर करते हैं

हरेक क़ीमत पर करते हैं

ख़ुद को खपा कर करते हैं

क्योंकि

ये दायित्व, हमारे मौलिक अधिकार हैं

जिनके प्रति हम पूरे ईमानदार हैं

ठीक समझे आप... हम पत्रकार हैं




लोभ की लपटों में जलते नहीं हैं

गुरबत के गारे में गलते नहीं हैं

सुविधा के सांचे में ढलते नहीं हैं

हमारे इरादे बदलते नहीं हैं


धमनियों में जब तलक़ शोणित बहेगा

और जब तक देह में दम ख़म दहेगा

हर पथिक इस पंथ का ये ही कहेगा

चल रहा है कारवां, चलता रहेगा

क़ोशिशें कर देख लीं बाधाओं ने

हार अपनी मान ली विपदाओं ने

धूल धूसरित हो गईं सब साज़िशें

नेस्तनाबूद हो गईं सब काविशें

बाहुबल से जीत ले चाहे कोई भूलोक को

पर असंभव! कुंद कर पाना कलम की नोंक को


सत्ता के लिप्सु नहीं, हम शोषितों के यार हैं

और गद्दारों की गर्दन के लिए तलवार हैं

हर घड़ी संघर्ष करने के लिए तैयार हैं

ठीक समझे आप.... हम पत्रकार हैं




हम अपने गीत गाते हैं

अपने ज़ख्म दिखाते हैं

हमें तो इस बात का कीड़ा है

कि ज़माने में बहुत पीड़ा है

यह कीड़ा बड़ी शिद्दत से कुलबुलाता है

तब

जब

किसनिये कुम्हार का क़त्ल

दुर्घटना में बदल दिया जाता है

षोड्शी सीतली का सलोना सौन्दर्य

सांवरिये सरपंच द्वारा मसल दिया जाता है

बेगारी से नट जाने पर बनवारी को

बैलगाड़ी के नीचे कुचल दिया जाता है

और दुलीचंद दरोगा द्वारा मुस्तगीस भौमली को

उड़द की भांति दल दिया जाता है

तब...

हमसे रहा नहीं जाता

ये ज़ुल्म सहा नहीं जाता

फड़कने लगते हैं बाजू हमारे

और लेखनी

स्वमेव चलने लगती है

उगलने लगती है लिपि अंगारों की

जी हां, अंगारों की

जो किसी मासूम

लाचार

पीड़ित

की ऑंखों से झरते लोहू की ईजाद होते हैं

या यूं समझो, आक्रोश की औलाद होते हैं

हम इन अंगारों के हिफ़ाज़तगार हैं

इस चमन के सच्चे चौकीदार हैं

ख़ुद्दार हैं, ख़ुद्दार हैं, ख़ुद्दार हैं

ठीक समझे आप ... हम पत्रकार हैं




हमारा टकराव उनसे है

जो नितांत सुन्नावस्था में हैं

जिनके कानों पर कभी जूं नहीं रेंगती

और उंगलियों से जिन्हें गुदगुदी नहीं होती

लेकिन वे जान लें

भली-भांति जान लें

कि उनकी देह पर यदि गैंडे की जाड़ी खाल है

तो हमारे पास भी उनके लिए तीतर के बाल हैं

जो एक बार अन्दर हो जाए

तो अच्छा भला आदमी बन्दर हो जाए

हम हर किस्म का एहतिमाम रखते हैं

जिन कानों पर जूं नहीं रेंगती

उनके लिए कनखजूरों का इन्तज़ाम रखते हैं

क्योंकि हम जानते हैं

भैंस के आगे बीन बजाने के बजाय

बीन से भैंस को बजाना ज़्यादा कारगर है

तो करने दो उन्हें हमले

ले आएं वे अपने लाव-लष्कर

हम भी डटे हैं कमर कस कर

उनके हाथों में अगर हथियार हैं

और पीछे पूरा शस्त्रागार है

हम भी हैं रणबांकुरे, कुछ कम नहीं हैं

भिड़ सकें हम से, ये उनमें दम नहीं है

हमें

लोहे के चने चबाना ही नहीं,

पचाना भी आता है

ख़ुद को मिटाना ही नहीं,

क़ौम को बचाना भी आता है

मुल्क़ के हम ही तो पहरेदार हैं

लेखनी के हम सिपहसालार हैं

सच की हर क़ीमत हमें स्वीकार है

ठीक समझे आप ... हम पत्रकार हैं




हैफ़ ! लेकिन एक गड़बड़ हो रही है

जो हमारी अस्मिता को धो रही है

चन्द तमाशाई लोग

रोग की भान्ति

हमें लग रहे हैं

और बड़े ठाठ से हमें

हमारे ही घर में ठग रहे हैं

पूजा को धन्धा समझने वाले ये लोग

आग बुझाने में नहीं

बेचने में तल्लीन हैं

ये इतने कमीन हैं

कि चन्द टुकड़ों की हवस में घर की लाज बेच दें

और मौका मिले, तो अपना पूरा समाज बेच दें

छलावे की आंधी चल रही है

इनकी बड़ी चांदी चल रही है

लेकिन कब तक

आख़िर कब तक?

ढूंढ ही लेंगे हम इन घुसपैठियों को

और उन टुच्चों को, घर के भेदियों को

जो हमारा बाना ओढ़े गए हैं

और हमारी पाक़गी को खा गए हैं

हम उनके गलीज़ मन्सूबे अन्जाम नहीं होने देंगे

अपने पेशे की अस्मत नीलाम नहीं होने देंगे

पहचानना है चन्द रंगे सियारों को

और कुचल देना है

रौंद देना है जली हुई सिगरेट के टोंटे की भान्ति

ताकि मिट जाए जनता की भ्रान्ति

और अवाम जान ले

जिनके मन में वतन से कोई प्यार नहीं है

मानवी पीड़ा से जिनको सरोकार नहीं है

सत्य की जय के लिए जो वफ़ादार नहीं है

----------------------वो पत्रकार नहीं है

----------------------वो पत्रकार नहीं है

----------------------वो पत्रकार नहीं है



अलबेला खत्री


10 comments:

Khushdeep Sehgal November 6, 2009 at 10:42 AM  

अलबेला जी,
इस कविता में आप के अंदर की आग सही तरह से दिखी है...इसी आग से मशाल जलाइए...देखिए उसकी रौशनी
में खुद-ब-खुद कारवां बनता जाएगा... इस दुनिया में वजूद का एहसास कराना है तो वो सिर्फ इसी से पता चलता है कि समाज की कुछ बुराइयों को बदलने के लिए आप सागर में बूंद की भी भूमिका निभा सकते हैं या नहीं...आज
ज़रूरत छाती से छाती मिलाने वाले लेखन की नहीं छाती पर गोली खाने वाले लेखन की है...ठीक वैसे ही जैसे अंग्रेज़ों से हमें आज़ाद कराने के लिए वतन के मतवालों ने खाई थी....बॉर्डर पर रणबांकुरे जिस जज़्बे के साथ मातृभूमि की सेवा करते हैं...देश को अब टोटल आज़ादी की ज़रूरत है...इसके लिए वालटिंयर्स को छाती पर गोली भी खानी पड़े तो कोई गम नहीं होगा...आपकी इसी तरह की रचनाओं की मुझे शिद्दत के साथ इंतज़ार रहेगा...

जय हिंद...

Sulabh Jaiswal "सुलभ" November 6, 2009 at 10:56 AM  

पत्रकारिता के एक सच्चे प्रहरी को मेरा सलाम!

साथ ही आपकी यह कविता विचारोत्तेजक हैं. बहुत धन्यवाद आपका.

IMAGE PHOTOGRAPHY November 6, 2009 at 11:59 AM  

पत्रकारो की व्यथा को खुब उकेरा है ।

Urmi November 6, 2009 at 12:26 PM  

अत्यन्त सुंदर रचना! आपने पत्रकारों के दर्द को bअखूबी प्रस्तुत किया है! रचना का हर एक शब्द सच्चाई का प्रतीक है!

Urmi November 6, 2009 at 12:26 PM  

अत्यन्त सुंदर रचना! आपने पत्रकारों के दर्द को बखूबी प्रस्तुत किया है! रचना का हर एक शब्द सच्चाई का प्रतीक है!

Satish Saxena November 6, 2009 at 12:27 PM  

एक ईमानदार रचना के लिए आपको शुभकामनायें !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' November 6, 2009 at 12:33 PM  

प्रभाष जोशी जी को
अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ!

शरद कोकास November 6, 2009 at 12:57 PM  

हम सभी इस दुख की घड़ी मे शरीक हैं ।

Murari Pareek November 6, 2009 at 3:22 PM  

ptrakaar ke sseene me dahkati aag se rubru karwayaa!!! patrkaaritaa kaa aainaa dikhaayaa hai!!! prabhash joshi ji bhaawpurit shradhanjali!!!

राजीव तनेजा November 7, 2009 at 1:09 AM  

एक रौ में लिखी गयी शानदार...जानदार....धारदार रचना...
इसी लौ को जलाए रखें...

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