हास्य कवि सम्मेलनों के मंच पर एक हंगामेदार पैरोडीकार के रूप में पिछले
25 वर्षों के दौरान मैंने देश के लगभग सभी नामी ग़िरामी कवियों-
कवयित्रियों के साथ कविता पढऩे का आनन्द और गौरव प्राप्त किया है. साथ
ही साथ यह कटु अनुभव भी प्राप्त किया है कि बड़े और महंगे कवियों के समक्ष
यदि मंच पर कविता सुनाने का अवसर हो, तो नये कवियों को चाहिए कि वे
कुछ भी फालतू सी तुकबन्दियां ही सुनायें. भूलकर भी कभी अपनी अच्छी
कवितायें सुनाकर श्रोताओं की भारी वाहवाही और तालियां लूटने का अपराध
न करें, क्योंकि इससे अनेक जन को तकलीफ़ होती है.
सबसे पहले तकलीफ़ होती है कवि सम्मेलन के आयोजक को जिसने
हज़ारों रुपये दे-देकर उन तथाकथित बड़े कवियों को बुलाया होता है जो कि
मंच पर सैकड़ों रुपयों का काम भी नहीं दिखा पाते. दिखायें भी कैसे? अपनी
सारी ऊर्जा तो वे बेचारे कवि-सम्मेलन से पूर्व ही खर्च कर चुके होते हैं
मदिरा पान में, ताश खेलने में, अन्य कवियों की निन्दा करने में या उपलब्ध
हो तो कवयित्री से आँख मटक्का करने में. सो मंच पर या तो वे ऊंघते रहते हैं
या ज़र्दे वाला पान मसाला चबा-चबाकर उसी गिलास में थूकते रहते हैं
जिसमें उन्होंने कुछ देर पहले पानी पीया होता है. उसी मंच की सफेद झक
चादरों पर तम्बाकू की पीक पोंछते रहते हैं जिस मंच की धूल माथे पर लगा
कर वे चढ़े होते हैं. और भी बहुत से घृणित कार्य वे बख़ूबी करते हैं. सिर्फ़
कविता ही नहीं कर पाते. कवितायें सुनाते भी हैं तो वही वर्षों पुरानी जो
श्रोताओं ने पहले ही कई बार सुनी होती हैं. ऐसे में कोई नया कवि यदि
कविताओं का ताँता बान्ध दे और जनता के मानस पर छा जाए तो
आयोजक हतप्रभ रह जाता है. वह अपना माथा पीट लेता है यह सोचते हुए
कि क्यों बुलाया उन महंगे गोबर गणेशों को. इससे अच्छा तो नये कवियों
को ही बुलाता. माल भी कम खर्च होता और मज़ा भी ज्य़ादा आता. वह
यह सोच कर भी दुःखी होता है कि जो 'महारथी' 10 मिनट भी श्रोताओं के
समक्ष टिके नहीं, उन्हें तो नोटों के बण्डल देने पड़ रहे हैं और जिन बेचारों ने
सारी रात माहौल जमाया उन्हें देने के लिए कुछ बचा ही नहीं.
कवि सम्मेलन के आयोजक को बड़ी तकलीफ़ तो इस बात से होती है कि
वे 'बड़े कवि' कवि-सम्मेलन को पूरा समय भी नहीं देते . सब जानते हैं
कि कवि-सम्मेलन रात्रि 10 बजे आरम्भ होते हैं और भोर तक चलते हैं.
परन्तु 'वे' कवि जो मंच पर पहले ही बहुत विलम्ब से आते हैं, सिर्फ़
12 बजे तक मंच पर रुकते हैं और जब तक श्रोता कवि-सम्मेलन से पूरी
तरह जुड़ें उससे पूर्व ही कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा भी कर देते हैं। (
चूंकि अपना पारिश्रमिक वे एडवांस ही ले चुके होते हैं इसलिए आयोजक
द्वारा रुपये काट लिए जाने का कोई भय तो उन्हें होता नहीं. लिहाज़ा वे
अपनी मन मर्जी चलाते हैं) बेचारे श्रोता जो मीलों दूर से चल कर आते हैं
कविता का आनन्द लेने के लिए, वे प्यासे ही रह जाते हैं. आयोजक उन
कवियों से बहुत अनुनय-विनय करता है, लेकिन 'वे' मंच पर नहीं रुकते.
रुकें भी किस बल से? जब पल्ले में कविता ही न हो. यह ओछी परम्परा
कविता और कवि-सम्मेलन दोनों के लिए घातक है. क्योंकि
लाख-डेढ़ लाख रुपया खर्च करने वाले आयोजक को जब कवियों से
सहयोग और समय नहीं मिलता तो वो भी सोचता है 'भाड़ में जायें कवि
और चूल्हे में जाये कवि-सम्मेलन.'' इससे अच्छा तो अगली बार आर्केस्ट्रा
का प्रोग्राम ही रख लेंगे. सारी रात कलाकार गायेंगे और जनता को भी
रात मज़ा मिलेगा. लिहाज़ा वह कवि-सम्मेलन हमेशा के लिए बन्द हो
जाता है. ज़रा सोचें, यदि ऐसे ही चलता रहा तो क्या एक दिन ऐसा न
आयेगा जब.. कवि-सम्मेलन केवल इतिहास के पन्नों पर पाये जाएंगे।
कविता के नाम पर लाखों रुपये कूटने वाले कवियों को इस बारे में
सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. साथ ही आयोजकजन को भी थोड़ा
सख्त रहना चाहिए. खैर...
आयोजक से भी अधिक तकलीफ़ होती है उन '50 हज़ार लूंगा'' मार्का
कवियों को जो देखते हैं कि वे तो धरे ही रह गए और कल का कोई लौंडा
पूरा कवि-सम्मेलन लूट ले गया. तब वे क्रोध के मारे दो पैग और लगा
लेते हैं. फलस्वरूप बेचारों का बचा-खुचा होश भी हवा हो जाता है. तब वे
गला ख़राब होने का या लगातार कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के कारण
शारीरिक थकान का बहाना बनाते हुए एक-दो 'हिट' रचनाएं सुना कर
तुरन्त अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं, वे सोचते हैं, जल्दी माइक छोड़
देंगे तो प्यासी जनता 'वन्स मोर - वन्स मोर' चिल्लाकर फिर उन्हें
बुलाएगी, लेकिन ऐसा होता नहीं. क्योंकि जनता उन सुने सुनाये
कैसेट्स के बजाय नये स्वरों को सुनना चाहती है. लिहाज़ा उनका यह
दाव भी खाली जाता है तो वे और भड़क उठते हैं. वाटर बॉटल में
बची-खुची सारी मदिरा भी सुडक लेते हैं और आयोजक की छाती पर
जूते समेत चढ़ बैठते हैं कि जब इन लौंडों को बुलाना था तो हमें क्यों
बुलाया? असल में वे तथाकथित ''स्टार पोएट'' अपने साथ मंच पर उन्हीं
कवियों को पसन्द करते हैं जो कि उनके पांव छू कर काव्य-पाठ करें,
''दादा-दादा'' करें, एकाध कविता उन्हें समर्पित करें और माइक पर
ठीक-ठाक जमें ताकि उनका ''स्टार डम'' बना रहे. जो कवि उनके समूचे
आभा-मंडल को ही धो डाले, उसे वे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?
अन्ततः सर्वाधिक तकलीफ़ तो स्वयं उस नये कवि को ही झेलनी पड़ती है
जो उस रात माइक पर तो जम जाता है लेकिन मंच से उखड़ जाता है.
क्योंकि मन ही मन कुढ़े हुए ''बड़े'' कवि उसी वक्त गांठ बान्ध लेते हैं
कि ''इसको'' मंच से आऊट करना है. परिणामतः उस कवि को भविष्य में
काव्य-पाठ का अवसर ही नहीं मिलता. क्योंकि ये तथाकथित दिग्गज
कवि जहां कहीं भी कवि-सम्मेलन करने जाते हैं, आयोजक से पहले ही
पूछ लेते हैं कि और कौन-कौन कवि आ रहे हैं? आयोजक की बताई सूची
में यदि 'उस' का नाम हो, तो वे तुरन्त कहते हैं, ''ये तो महाफालतू कवि
है, कवि नहीं है कचरा है कचरा. इसे मत बुलाओ, नहीं तो पूरे प्रोग्राम का
भट्ठा बैठ जाएगा. ये तो सांप्रदायिक कविता पढ़ता है, तुम्हारे शहर में
दंगा करवा देगा. ये तो पैरोडियां सुनाता है, मंच को सस्ता बना देगा.''
आयोजक यदि कहे कि रहने दीजिए भाई साहब, इस बार तो बुला लिया है.
अगली बार नहीं बुलायेंगे. तो ''उन'' का सीधा जवाब होता है. ''ठीक है, आप
उसी से काम चलाइए, हम नहीं आयेंगे.'' चूंकि आयोजक को लोगों से पैसा
इकट्ठा करना होता है और पैसा ''नाम वालों'' के नाम पर ही मिलता है.
सो न चाहते हुए भी आयोजक को उनकी बात माननी पड़ती है. लिहाज़ा
नया कवि, वह ऊर्जावान कवि, वह मंच-जमाऊ कवि कवि-सम्मेलन
की टीम से कट जाता है.
अतः नये कवि यदि अपना ही भला चाहते हों, तो भूलकर भी कभी महंगे
'कवियों' के सामने माइक पर अपना लोहा न मनवायें. हॉं, मंच पर जमने
का, श्रोताओं का मन जीतने का ज्य़ादा ही शौक और सामर्थ्य हो तो
मुझसे सम्पर्क करें. मेरे द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन में आयें और
जितना ज़ोर हो, सारा दिखा दें. मैं उन्हें मान-सम्मान और उचित
पारिश्रमिक दिलाने के लिए वचनबद्ध हूं. इस आलेख के माध्यम से मैं
आमन्त्रित करता हूं तमाम प्रतिभाशाली रचनाकारों को कि हिन्दी कविता
का मंच तुम्हें पुकार रहा है. सहायता के लिए पुकार रहा है. आओ, इसे
ठेकेदारों की कै़द से छुड़ायें, वर्षों पुरानी घिसी-पिटी लफ्फ़ाजी से मुक्त
करायें और नये काव्य की नई गंगा बहायें.
इस पावन आन्दोलन का आरम्भ मैं पहले ही कर चुका हूं. किन्तु मुझे
सख्त ज़रूरत है उन मेधावी रचनाकारों की जो जोड़-तोड़ में नहीं, अपितु
सृजन में कुशलता रखते हों. आने वाला समय हिन्दी, हिन्दी कविता और
हिन्दी कवि सम्मेलनों के लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगा ऐसा
मेरा दृढ़ विश्वास है.
25 वर्षों के दौरान मैंने देश के लगभग सभी नामी ग़िरामी कवियों-
कवयित्रियों के साथ कविता पढऩे का आनन्द और गौरव प्राप्त किया है. साथ
ही साथ यह कटु अनुभव भी प्राप्त किया है कि बड़े और महंगे कवियों के समक्ष
यदि मंच पर कविता सुनाने का अवसर हो, तो नये कवियों को चाहिए कि वे
कुछ भी फालतू सी तुकबन्दियां ही सुनायें. भूलकर भी कभी अपनी अच्छी
कवितायें सुनाकर श्रोताओं की भारी वाहवाही और तालियां लूटने का अपराध
न करें, क्योंकि इससे अनेक जन को तकलीफ़ होती है.
सबसे पहले तकलीफ़ होती है कवि सम्मेलन के आयोजक को जिसने
हज़ारों रुपये दे-देकर उन तथाकथित बड़े कवियों को बुलाया होता है जो कि
मंच पर सैकड़ों रुपयों का काम भी नहीं दिखा पाते. दिखायें भी कैसे? अपनी
सारी ऊर्जा तो वे बेचारे कवि-सम्मेलन से पूर्व ही खर्च कर चुके होते हैं
मदिरा पान में, ताश खेलने में, अन्य कवियों की निन्दा करने में या उपलब्ध
हो तो कवयित्री से आँख मटक्का करने में. सो मंच पर या तो वे ऊंघते रहते हैं
या ज़र्दे वाला पान मसाला चबा-चबाकर उसी गिलास में थूकते रहते हैं
जिसमें उन्होंने कुछ देर पहले पानी पीया होता है. उसी मंच की सफेद झक
चादरों पर तम्बाकू की पीक पोंछते रहते हैं जिस मंच की धूल माथे पर लगा
कर वे चढ़े होते हैं. और भी बहुत से घृणित कार्य वे बख़ूबी करते हैं. सिर्फ़
कविता ही नहीं कर पाते. कवितायें सुनाते भी हैं तो वही वर्षों पुरानी जो
श्रोताओं ने पहले ही कई बार सुनी होती हैं. ऐसे में कोई नया कवि यदि
कविताओं का ताँता बान्ध दे और जनता के मानस पर छा जाए तो
आयोजक हतप्रभ रह जाता है. वह अपना माथा पीट लेता है यह सोचते हुए
कि क्यों बुलाया उन महंगे गोबर गणेशों को. इससे अच्छा तो नये कवियों
को ही बुलाता. माल भी कम खर्च होता और मज़ा भी ज्य़ादा आता. वह
यह सोच कर भी दुःखी होता है कि जो 'महारथी' 10 मिनट भी श्रोताओं के
समक्ष टिके नहीं, उन्हें तो नोटों के बण्डल देने पड़ रहे हैं और जिन बेचारों ने
सारी रात माहौल जमाया उन्हें देने के लिए कुछ बचा ही नहीं.
कवि सम्मेलन के आयोजक को बड़ी तकलीफ़ तो इस बात से होती है कि
वे 'बड़े कवि' कवि-सम्मेलन को पूरा समय भी नहीं देते . सब जानते हैं
कि कवि-सम्मेलन रात्रि 10 बजे आरम्भ होते हैं और भोर तक चलते हैं.
परन्तु 'वे' कवि जो मंच पर पहले ही बहुत विलम्ब से आते हैं, सिर्फ़
12 बजे तक मंच पर रुकते हैं और जब तक श्रोता कवि-सम्मेलन से पूरी
तरह जुड़ें उससे पूर्व ही कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा भी कर देते हैं। (
चूंकि अपना पारिश्रमिक वे एडवांस ही ले चुके होते हैं इसलिए आयोजक
द्वारा रुपये काट लिए जाने का कोई भय तो उन्हें होता नहीं. लिहाज़ा वे
अपनी मन मर्जी चलाते हैं) बेचारे श्रोता जो मीलों दूर से चल कर आते हैं
कविता का आनन्द लेने के लिए, वे प्यासे ही रह जाते हैं. आयोजक उन
कवियों से बहुत अनुनय-विनय करता है, लेकिन 'वे' मंच पर नहीं रुकते.
रुकें भी किस बल से? जब पल्ले में कविता ही न हो. यह ओछी परम्परा
कविता और कवि-सम्मेलन दोनों के लिए घातक है. क्योंकि
लाख-डेढ़ लाख रुपया खर्च करने वाले आयोजक को जब कवियों से
सहयोग और समय नहीं मिलता तो वो भी सोचता है 'भाड़ में जायें कवि
और चूल्हे में जाये कवि-सम्मेलन.'' इससे अच्छा तो अगली बार आर्केस्ट्रा
का प्रोग्राम ही रख लेंगे. सारी रात कलाकार गायेंगे और जनता को भी
रात मज़ा मिलेगा. लिहाज़ा वह कवि-सम्मेलन हमेशा के लिए बन्द हो
जाता है. ज़रा सोचें, यदि ऐसे ही चलता रहा तो क्या एक दिन ऐसा न
आयेगा जब.. कवि-सम्मेलन केवल इतिहास के पन्नों पर पाये जाएंगे।
कविता के नाम पर लाखों रुपये कूटने वाले कवियों को इस बारे में
सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. साथ ही आयोजकजन को भी थोड़ा
सख्त रहना चाहिए. खैर...
आयोजक से भी अधिक तकलीफ़ होती है उन '50 हज़ार लूंगा'' मार्का
कवियों को जो देखते हैं कि वे तो धरे ही रह गए और कल का कोई लौंडा
पूरा कवि-सम्मेलन लूट ले गया. तब वे क्रोध के मारे दो पैग और लगा
लेते हैं. फलस्वरूप बेचारों का बचा-खुचा होश भी हवा हो जाता है. तब वे
गला ख़राब होने का या लगातार कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के कारण
शारीरिक थकान का बहाना बनाते हुए एक-दो 'हिट' रचनाएं सुना कर
तुरन्त अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं, वे सोचते हैं, जल्दी माइक छोड़
देंगे तो प्यासी जनता 'वन्स मोर - वन्स मोर' चिल्लाकर फिर उन्हें
बुलाएगी, लेकिन ऐसा होता नहीं. क्योंकि जनता उन सुने सुनाये
कैसेट्स के बजाय नये स्वरों को सुनना चाहती है. लिहाज़ा उनका यह
दाव भी खाली जाता है तो वे और भड़क उठते हैं. वाटर बॉटल में
बची-खुची सारी मदिरा भी सुडक लेते हैं और आयोजक की छाती पर
जूते समेत चढ़ बैठते हैं कि जब इन लौंडों को बुलाना था तो हमें क्यों
बुलाया? असल में वे तथाकथित ''स्टार पोएट'' अपने साथ मंच पर उन्हीं
कवियों को पसन्द करते हैं जो कि उनके पांव छू कर काव्य-पाठ करें,
''दादा-दादा'' करें, एकाध कविता उन्हें समर्पित करें और माइक पर
ठीक-ठाक जमें ताकि उनका ''स्टार डम'' बना रहे. जो कवि उनके समूचे
आभा-मंडल को ही धो डाले, उसे वे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?
अन्ततः सर्वाधिक तकलीफ़ तो स्वयं उस नये कवि को ही झेलनी पड़ती है
जो उस रात माइक पर तो जम जाता है लेकिन मंच से उखड़ जाता है.
क्योंकि मन ही मन कुढ़े हुए ''बड़े'' कवि उसी वक्त गांठ बान्ध लेते हैं
कि ''इसको'' मंच से आऊट करना है. परिणामतः उस कवि को भविष्य में
काव्य-पाठ का अवसर ही नहीं मिलता. क्योंकि ये तथाकथित दिग्गज
कवि जहां कहीं भी कवि-सम्मेलन करने जाते हैं, आयोजक से पहले ही
पूछ लेते हैं कि और कौन-कौन कवि आ रहे हैं? आयोजक की बताई सूची
में यदि 'उस' का नाम हो, तो वे तुरन्त कहते हैं, ''ये तो महाफालतू कवि
है, कवि नहीं है कचरा है कचरा. इसे मत बुलाओ, नहीं तो पूरे प्रोग्राम का
भट्ठा बैठ जाएगा. ये तो सांप्रदायिक कविता पढ़ता है, तुम्हारे शहर में
दंगा करवा देगा. ये तो पैरोडियां सुनाता है, मंच को सस्ता बना देगा.''
आयोजक यदि कहे कि रहने दीजिए भाई साहब, इस बार तो बुला लिया है.
अगली बार नहीं बुलायेंगे. तो ''उन'' का सीधा जवाब होता है. ''ठीक है, आप
उसी से काम चलाइए, हम नहीं आयेंगे.'' चूंकि आयोजक को लोगों से पैसा
इकट्ठा करना होता है और पैसा ''नाम वालों'' के नाम पर ही मिलता है.
सो न चाहते हुए भी आयोजक को उनकी बात माननी पड़ती है. लिहाज़ा
नया कवि, वह ऊर्जावान कवि, वह मंच-जमाऊ कवि कवि-सम्मेलन
की टीम से कट जाता है.
अतः नये कवि यदि अपना ही भला चाहते हों, तो भूलकर भी कभी महंगे
'कवियों' के सामने माइक पर अपना लोहा न मनवायें. हॉं, मंच पर जमने
का, श्रोताओं का मन जीतने का ज्य़ादा ही शौक और सामर्थ्य हो तो
मुझसे सम्पर्क करें. मेरे द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन में आयें और
जितना ज़ोर हो, सारा दिखा दें. मैं उन्हें मान-सम्मान और उचित
पारिश्रमिक दिलाने के लिए वचनबद्ध हूं. इस आलेख के माध्यम से मैं
आमन्त्रित करता हूं तमाम प्रतिभाशाली रचनाकारों को कि हिन्दी कविता
का मंच तुम्हें पुकार रहा है. सहायता के लिए पुकार रहा है. आओ, इसे
ठेकेदारों की कै़द से छुड़ायें, वर्षों पुरानी घिसी-पिटी लफ्फ़ाजी से मुक्त
करायें और नये काव्य की नई गंगा बहायें.
इस पावन आन्दोलन का आरम्भ मैं पहले ही कर चुका हूं. किन्तु मुझे
सख्त ज़रूरत है उन मेधावी रचनाकारों की जो जोड़-तोड़ में नहीं, अपितु
सृजन में कुशलता रखते हों. आने वाला समय हिन्दी, हिन्दी कविता और
हिन्दी कवि सम्मेलनों के लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगा ऐसा
मेरा दृढ़ विश्वास है.
18 comments:
is post se kavi sammelanon ka kala sach jaan kar man ko bahut dukh hua. kavi sammelan vastav men ukhadne ya pachhadne ka akhada nahin, balki ek saanjhe uddeshya se prerit aisa manch hai jis se shrota kee chetna ke vistar karne vale kavi se seedhe unki kavitayen shrotaon tak pahunchti hain. iski vikriti door karne ke liye aap jo prayas kar rahe hain, unka svaagat hai.
खत्री जी,
एक कटु सत्य का खुलासा किया है आपने। पता नहीं लोगों में अहं क्यों आ जाता है और क्यों कभी किसी दूसरे को आगे बढ़ते हुए देखना नहीं चाहते?
प्रतिभावान कवियों को आगे बढ़ाने का आपका यह प्रयास सराहनीय है!
आज की हालात मे सब जगह यही हाल है तो कवि कहाँ इस से अच्गूते रह सकते हैं लेखक जगत का सच तो इतना कडवा है कि शब्दों मे ब्यान करना भी मुश्किल है बडिया मुद्दा है आभार्
प्रणाम अलबेला जी,
आपका लेख पढ़ा और फिर दुबारा पढ़ा. ये बात सही है कि काव्य मंचों पर अपनी पहचान बनाने के लिए कविता के साथ साथ अन्य टोटके भी काम करते हैं. नए कवियों को जमने देना शायद कोई पसंद नहीं करता है. मेरे भी कुछ अनुभव ऐसे हैं जिनकी वजह से मेरा मन भी कुछ समय के लिए काव्य मंचों से उचाट हो गया था. खैर, जो बीत गयी सो बात गयी, अब तो अंतरजाल के माध्यम से कितने बढ़िया बढ़िया कवियों को सुनने का अवसर मिलता है, हिंद युग्म के ज़रिये कितने नए लोगों को अपनी कला प्रदर्शित करने का अवसर मिल रहा है और कितने ही अन्य ब्लाग ऐसे हैं जिनपर गाहे बगाहे अच्छी रचनायें पढने को मिल जाती हैं, याहूग्रुप ई-कविता में कविता पर कितनी सार्थक चर्चा होती है. ये सब देख कर मन आश्वस्त होता है.
मंचों पर बड़े कवियों के सन्दर्भ में आपने जो बात कही है वह अनेक कवियों पर सही उतरती है पर इस बात के अपवाद भी अनेक हैं. सोम ठाकुर, उदय प्रताप सिंह, स्व डा बृजेन्द्र अवस्थी, अशोक चक्रधर, गोपालदास नीरज तथा और भी अनेक बड़े कवियों को मैंने सदा नए लोगों को प्रोत्साहित करते देखा है. कभी कभी मुझको ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं बीच में कुछ ऐसे लोग घुस गए हैं जिनके पास कविता नहीं है पर प्रसिद्धि है, वे लोग सबसे ज्यादा गड़बडी करते हैं. कहीं एक दोहा सुना था;
समय समय कि बात है समय समय का योग,
लाखों में बिकने लगे दो कौड़ी के लोग,
जिस समय हम कविता का छात्र बनने कि योग्यता प्राप्त करते हैं उस समय विद्यालय जाने कि अपेक्षा तुकबन्दियाँ कर कविता से पैसा बनाने कि फ़िक्र करने लग जाते हैं. और बाद में अपना एक मंचीय विश्वविद्यालय खोल लेते हैं जिसमें हमारे गुट के लोग अध्यापन करने लगते हैं. कमाल कि बात ये है कि इस विश्वविद्यालय में छात्र पढने भी लगते हैं और आगे जाकर वे भी ऐसी ही किसी परिपाटी का निर्वाह करते हैं.
मुझे अनेक कवियों नें एक बात समझाने कि कोशिश कि थी कि यदि तुम चाहते हो कि तुमको बुलाया जाए तो कार्यक्रमों का आयोजन प्रारंभ कर दो और हमको बुलाने लगो. तुम मेरी पीठ खुजाओ और मैं तुम्हारी खुजाता हूँ. इस खुजली में कहीं न कहीं कविता किसी नाइसिल के डिब्बे में दुबक कर बैठ जाती है और मंच पर जो होता है वो हमारे आलोचकों को दूसरी और मुंह फेरने के और अवसर प्रदान करता है.
ज़रा सोचिये जब दिनकर और बच्चन कि कविता को मंचों पर भी सुना जाता था और साहित्यिक आलोचना में भी चुना जाता था तो आज ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? मंच कि कविता कि साहित्य क्यों नहीं माना जाता है? कविता कोष में हास्य कवियों कि न्यूनतम रचनायें क्यों हैं? ऐसे अनेक प्रश्न मन में आते हैं.
आप जो पुनीत कार्य कर रहे हैं उसके लिए आपको कोटि कोटि शुभकामनाएं. कवि सम्मेलनों को नयी पीढी से जोड़ने के लिए आवश्यक है कि इस पीढी में से भी ऐसे वाचिक कवि मंच पर आयें जिनको सुनकर ये लगे कि भविष्य सुनहरा है.
आपका
अभिनव
अलबेला जी आपने आज के कवि सम्मेलनों में चलने वाली धांधली की जिस बेबाकी से समीक्षा की है वो वाकई काबिले दाद है...मैंने भी ये सब सुन रखा था लेकिन आप जैसे भुक्त भोगी से ये सब सुन कर पढ़ कर बहुत अच्छा लगा...आपने सच कहा है ये बूढे चुक चुके कवि अपनी गन्दी राजनीति से कवि सम्मेलनों का माहौल ख़राब किये हुए हैं...सबसे ज्यादा तकलीफ श्रोताओं को होती है जो कुछ अच्छी रचनाएँ सुनने के लोभ में रात भर जागते है और बदले में फूहड़ चुटकुले और स्तर हीन रचनाएँ मिलती हैं...आप जो प्रयास करने जा रहे हैं वो सराहनीय है और मरते कवि सम्मेलनों में फिर से प्राण फूँकने वाला है...इश्वर आपको अपने लक्ष्य में सफल करे....
नीरज
अलबेला जी ,
न मैं कवि हूँ और न मैं कवि सम्मेलनों में जाता हूँ पर हाँ इतना जरूर जानता हूँ कि आज के इस भारत देश हर जगह धांधली चल रही है तो एसा नहीं हो सकता कि आप के पेशे में एसा न हो !!
फ़िर भी सच को माना इस लिए आप साधुवाद के पात्र है |
इश्वर आपको अपने लक्ष्य में सफल करे |
इतना गंद ! ओह ...
अलबेला जी , एक कटु सत्य बताया है आपने, इस दौर से में भी गुजर चुका हूँ | अपने स्तर पे मेरे से सीनियर कलाकार के साथ प्राय: ऐसा होता था |
वैसे तो यह कारनामे हर क्षेत्र में हैं, लेकिन उज़ागर करने का आपका अंदाज़ अलबेला है। एक क्षण को मुझे ऐसा लगा जैसे ब्लॉगजगत के कथित मठाधीशों की बात की जा रही है लेकिन फिर अपनी पटरी पर लौट आये विचार
अलबेला जी आप ने बिलकुल सच लिखा, मै कोई कवि तो नही, लेकिन मैने अकसर ऎसा देखा है, बहुत सच्ची बात आप ने लिखी अपने इस लेख मै.
धन्यवाद
एक ऐसे यथार्थ को दर्शाती, जिसे कहने की हिम्मत कम ही लोग जुटा पायें, साहसी पोस्ट है. आप सब कुछ कह चुके तो और कुछ जोड़ने को बचता नहीं. नये कवियों को आगे बढ़ाने का आपका यह कदम सराहनीय है, इस हेतु आपका साधुवाद.
कड़वे सच को उजागर करता एक साहसी लेख.....
नए कवियों प्रोत्साहित करने का आपका प्रयास सराहनीय है
अलबेला जी
सच बात तो यह है कि आप जितना लिख लेते हैं उतना लिखने वाले विरले ही होते हैं वरना तो अनेक कवि तो दो चार कविताओं में बरसों काट लेते हैं। पहले कवि सम्मेलन सुनने जाता था पर वही कवि कवितायें सुनकर मन उकता गया। अलबत्ता मंच पर कविता कभी नहीं सुनाई। आपका यहां लिखते देख अच्छा लगता है। आपको टीवी पर देखकर खुशी होती है! वैसे यहां हर जगह मठाधीशी संस्कृति है पर उसे इन हिंदी ब्लाग जगत से चुनौती मिलेगी यह भी मेरा विश्वास है।
.........................
दीपक भारतदीप
सच है. किंतु इसे हास्य कवि सम्मेलनों तक ही क्यों सीमित कर रहे हैं? और फिर इससेभी आगे कहूं तो मात्र कवि सम्मेलन ही नहीं पूरा कि पूरा साहित्यिक माफिया है जो (कम से कम) हिन्दी साहित्य पर कुंडली मार कर बैठा है.
स्थापित पत्र-पत्रिकाओं मे तो स्थिति इससे भी बदतर है. साहित्यिक पुरस्कारों में भी सिर्फ माफिया ही राज करता है.
किस्सा कोताह यह कि पूरा का पूरा हिन्दी साहित्यिक जगत ही दागदार हो गया है. क्या प्रकाशन व्यवसाय स्वच्छ है? वहां भी वही ढाक के तीन पात.
फिर भी मुद्दा उठाने हेतु धन्यवाद.
अलबेला जी एक सच गोरा भी होगा
क्योंकि जब काला है तो बिना गोरे के
काले का अस्तित्व कैसे मानें
उसे भी बतला दें।
बहुत ही दुःखद है यह सब....
कटु सत्य किन्तु व्यवसायिकता के दौर मे क्या अपेक्षा की जा सकती है? नाम जो बिकते हैं
कविता और कवि सम्मेलन मजाक बन कर रह गए हैं । युवा कवि तो दिखाई नहीं देते ।
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