पत्तियाँ
गुलाब
की
कुछ
यूँ
झर
रही
हैं
मानो
कमसिन
किशोरियां
अपनी
लाज
बचाने
के
लिए
आत्मघात
कर
रही
हैं
गुलाब
की
कुछ
यूँ
झर
रही
हैं
मानो
कमसिन
किशोरियां
अपनी
लाज
बचाने
के
लिए
आत्मघात
कर
रही
हैं
Labels: कविता
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4 comments:
बहुत खूब...कहते रहिए..क्रूर सच्चाईयों पर प्रहार करते रहिए। सूरत बदले ना बदले, आवाज उठाते रहिए.
बहुत खूब्।
aah ati vishisht !!
गजब की रचना है. बधाई.
रामराम.
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