सागर में भी सूखा है मन
जाने कितना भूखा है मन
जितना चाहा उतना पाया, सपनों के अनुरूप
फिर भी हमको कम लगती अपने हिस्से की धूप
सपनों का संगीत अधूरा, अरमानों का गीत अधूरा
हार अधूरी, जीत अधूरी, जीवन की हर रीत अधूरी
मेले में भी तन्हा है मन
क्यों उलझा उलझा सा है मन
हाथों की इन रेखाओं में है सारा अभिरूप
फिर क्यों हमको कम लगती अपने हिस्से की धूप
कौन हैं अपने कौन पराये, हमको डराते अपने ही साये
छांव में बैठा मन ललचाये, धूप मिले तो खिल खिल जाए
चलते चलते हारा जीवन
बिखरा बिखरा सारा जीवन
और मिले कुछ धूप तो निखरे जीवन का रंग रूप
क्योंकि हमको कम लगती अपने हिस्से की धूप
hindi hasyakavi sammelan in mangalore by MRPL
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शानदार, शानदार, शानदार …………………
शानदार और जानदार रहा मंगलूर रिफ़ाइनरी एंड पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड द्वारा
राजभाषा विभाग के तत्वाधान में डॉ बी आर पाल द्वारा आ...
10 years ago
7 comments:
बेहतरीन भाई!! सभी को ऐसा लगता है!
वाह अलबेला जी सबके दिल की बात की हैं आपने ....साधू
हाथों की इन रेखाओं में है सारा अभिरूप
िर क्यों हमको कम लगती अपने हिस्से की धूप
bahut khoob kaha aapne
-Sheena
शब्दों में जैसे जीवन को उतार दिया है आपने। वाह!!!!!
बहुत खूब.. आपकी बात पढ़कर तो हमें भी ऐसा ही लग रहा है.. हैपी ब्लॉगिंग :)
ऐसा ही जीवन का एहसास है या मानव मन की न बुझने वाली प्यास ..........बहुत ही सुन्दर पन्क्तियाँ है जिसको सिर्फ महसूस कर सकते है ......
आम जन-मानस की आवाज़ होती हैँ आपकी सभी रचनाएँ ...
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