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Albela Khatri

तज चाहे गीता और तज दे क़ुरान को...........

मान अभिमान तज,


तप और दान तज,


तज चाहे गीता और तज दे क़ुरान को




नौहा और नाला तज,


गिरजा शिवाला तज,


तज चाहे तीज चौथ नौमी रमज़ान को




काशी काबा ग्रन्थ तज,


चाहे सारे पन्थ तज,


तज दे तू भजनों की लम्बी लम्बी तान को



ईश की आराधना का


मन यदि करता है


प्रेम कर... प्रेम कर .....हर इन्सान को

11 comments:

M VERMA August 26, 2009 at 7:52 PM  

सुन्दर अभिव्यक्ति
इंसान अगर इंसान को प्रेम करने लगे तो फिर किसी मन्दिर मस्ज़िद मे जाने की आवश्यकता ही न पडे

dpkraj August 26, 2009 at 8:01 PM  

तज चाहे गीता! आपकी इस बेहतर कविता में बाकी चीजों के तजने के बारे में तो मुझे कुछ नहीं कहना! हां, गीता के बारे में यह जरूर कह सकता हूं कि उसको पढ़ें और समझें तभी इंसान सहित सभी जीवों को प्रेम किया जा सकता है।
दीपक भारतदीप

संगीता पुरी August 26, 2009 at 8:15 PM  

ईश की आराधना का


मन यदि करता है


प्रेम कर... प्रेम कर .....हर इन्सान को
बिल्‍कुल सटीक !!

Chandan Kumar Jha August 26, 2009 at 9:27 PM  

आपके इस गीत नें मन को छू लिया.

Gyan Darpan August 26, 2009 at 9:39 PM  

बहुत ही सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति

शिवम् मिश्रा August 26, 2009 at 10:22 PM  

चाहे गीता बाछिये , या पढिए कुरान ,
तेरा मेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान |

हमेशा की तरह बढ़िया पोस्ट लगाई है |

शरद कोकास August 27, 2009 at 1:06 AM  

अलबेला भाई यह है प्रगतीशील कविता . जो प्रेम को हर धर्म से ऊपर स्थापित करती है क्योंकि प्रेम नही होगा तो हम इस धर्म का करेंगे क्या?

Sudhir (सुधीर) August 27, 2009 at 9:45 AM  

सुन्दर अभिव्यक्ति साधू

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" August 27, 2009 at 12:05 PM  

ईश की आराधना का
मन यदि करता है
प्रेम कर... प्रेम कर .....हर इन्सान को

बेहतरीन् रचना!!!!

राजीव तनेजा August 27, 2009 at 11:06 PM  

बढिया सीख देती सुन्दर कविता

रज़िया "राज़" August 28, 2009 at 11:06 AM  

लाजवाब!!!

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