संगीता पुरी गुस्से में हैं । बहुत गुस्से में हैं ।
गुस्सा है एक खोजी पत्रकार पर जो
कि किसी भी दृष्टिकोण से गुस्से का पात्र नहीं है ।
क्योंकि गुस्से के लायक
अभी वो हुआ ही नहीं है । अभी तो वो ख़ुद खोजी है ....
खोज रहा है अपना शिकार...
एक पुरानी कहावत है कि हर असफल कवि आलोचक बन जाता है, हर असफल
लेखक पत्रकार बन जाता है, हर असफल पत्रकार खोजी पत्रकार
बन जाता है और
यहाँ भी बस न चले तो फ़िर वह यह खोजने में जुट जाता है कि
अब मैं क्या बनूँ ?
खोजी पत्रकार की भान्ति खोजी कुत्ते भी हुआ करते हैं जिनके बारे में
कविवर
श्री सरोज कुमार इन्दोर वाले की एक हास्य कविता है :
"मैंने अपने शहर के पुलिस कप्तान से पूछा
क्यों साहेब,
आजकल आप वो सूंघने वाले खोजी कुत्ते
काम में क्यों नहीं लाते हैं ?
पुलिस कप्तान ने कहा -
इसलिए नहीं लाते हैं
क्योंकि
ये कमबख्त खोजी कुत्ते
सूंघते-सूंघते थाने ही चले आते हैं"
तो संगीताजी, बात चल रही थी खोजी पत्रकार की .....
खोजी पत्रकार दो तरह के होते हैं । एक वो जो कि बड़े विद्वान, जुझारू ,
सत्यवादी और निर्भीक होने के कारण समाज में तो सम्मानित होते ही
हैं, प्रशासन में भी उनकी तूती बड़े ज़ोर से बोलती है.... दूसरी प्रजाति के
खोजी पत्रकार वो होते हैं । जो कहीं भी, कोई भी, काम न मिलने के कारण
बेचारे काम खोजते- खोजते खोजी पत्रकार बन जाते हैं। वैसे ये अपने आप
को खोजी पत्रकार कम, क्राइम रिपोर्टर कहलाना ज़्यादा पसन्द करते हैं ।
खोजी पत्रकार अथवा क्राइम रिपोर्टर आमतौर पर अपने मालिक के लिए
कमाऊ पूत होते हैं । उनका काम होता है
हफ़्ते के हफ़्ते पुलिस थानों, चौकियों,
पंचायत समितियों, नगर पालिकाओं व सार्वजनिक निर्माण विभाग जैसे
संस्थानों के अधिकारियों से मिलना, उनसे लिफाफा लेना और अपने बॉस
को पहुंचा देना ...........अब ये लिफाफे क्यों मिलते हैं तथा
इन लिफाफों में क्या
होता है इस पर मैं अगले आलेख में रौशनी डालूँगा ...
फ़िलहाल बात करते हैं
उन स्वागतीय टिप्पणियों की जिन्हें ले कर खोजी पत्रकार
आपके पीछे पड़
गए थे और आपने भी बात के बतंगड़ को फोकट ही
अपने स्वाभिमान व
सम्मान पर चोट समझते हुए इतने गुस्से में आज एक
आलेख लिख मारा ।
संगीताजी,
मुझसे किसी ने पूछा -
"बोलो अलबेला खत्री !
बोफोर्स सौदे में दलाई किसने खाई ?
मैंने कहा
मुझे नहीं पता किसने खाई
लेकिन चिल्ला वही रहे हैं
जिनके हिस्से में नहीं आई ।"
जिनके हिस्से में जो वस्तु कम आती है उसे दुःख होना स्वाभाविक है।
एक बार एक खोजी पत्रकार ट्रेन के एक ऐसे डिब्बे में चढ़ गया जो कि
बारात से भरा था । ट्रेन चलते ही एक आदमी ने सभी लोगों को रसगुल्ले
बाँटना शुरू किया । खोजी ......ने सोचा चलो, सफ़र अच्छा कटेगा
खाते-पीते,
लेकिन उसकी आशा निराशा में बदल गई क्योंकि बांटने वाले ने सबको
रसगुल्ले बांटे, कई कई बार बांटे, किन्तु उसे ही छोड़ दिया ।
खोजी ने सोचा,
कैसे बेवकूफ़ और निर्दयी - निर्लज्ज लोग हैं; अरे...
एक-आध मुझे भी दे देते
तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता ?
थोड़ी देर बाद बारातियों में लड्डू बँटे, साग-पूड़ी बँटी यहाँ तक कि
चाय कॉफी
भी बँटी लेकिन उसे हर बार छोड़ दिया गया कुछ भी नहीं दिया गया तो
उसके
सब्र का बाँध टूट गया और वह खड़े हो कर चिल्लाने लगा -
"भगवान करे इस डिब्बे पर बिजली गिर जाए, परमाणु बम गिर जाए ..
तुम
सब मर जाओ तुम्हारे निशाँ तक किसी को न मिले वगैरह वगैरह....
एक बाराती बोला - भाई साहेब आप बड़े बुद्धू हैं !
अरे तो बम गिरेगा तो सब
लोग मारे जायेंगे और सभी मरेंगे तो तुम भी साथ मरोगे .....
खोजी बोला- मैं नहीं
मरूँगा ।
बाराती ने पूछा - तुम कैसे बचोगे ? खोजी बोला- जैसे मैं रसगुल्ले,
पूड़ियों और
लड्डुओं से बच गया था.................हा हा हा हा हा हा
hindi hasyakavi sammelan in mangalore by MRPL
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शानदार, शानदार, शानदार …………………
शानदार और जानदार रहा मंगलूर रिफ़ाइनरी एंड पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड द्वारा
राजभाषा विभाग के तत्वाधान में डॉ बी आर पाल द्वारा आ...
10 years ago
3 comments:
खोजी पत्रकार की अच्छी खोज की है.
अलबेला जी सगितां जी की ये आपत्ती तो वाजिब है। मुझे नही लगता की सगितां जी कुछ गलत करती है, वो तो कोशिश करती हैं नये ब्लोगर को उत्साहित करने का ताकी ब्लोगर अपने ब्लोग के माध्यम से हिन्दी को आगे बढाने मे मदद करें , तो इसमे गलत ही क्या हैं,।
रही बात खोजी पत्रकार की तो मुझे लगता है कि एसे पत्रकार बस नाम के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
अच्छी और रोचक पोस्ट....
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