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Albela Khatri

अलगाव के इस युग में मानवीय एकता का तीर्थ स्थान

तुम

न शुभ हो

न शगुन हो

न मुहूर्त हो

फिर भी तुम इस समाज की

इक ज़रूरत हो

ज़रूरत भी ऐसी जो टाली नहीं जा सकती

तुम्हारी ये बस्ती

इस शहर से निकाली नहीं जा सकती

क्योंकि तुम

तन और मन की तुष्टि का

सम्पूर्ण सामान हो

अरे!

अलगाव के इस युग में मानवीय एकता का

तीर्थ स्थान हो

हाँ हाँ

तीर्थ स्थान

जहाँ हिन्दू हिन्दू नहीं रहता

मुस्लिम मुस्लिम नहीं रहता

इसाई इसाई नहीं रहता

बनिया बनिया नहीं रहता

पुजारी पुजारी नहीं रहता

कसाई कसाई नहीं रहता

रहता है शरीर

जो आता है और शान्त होकर चला जाता है

रात का मुसाफ़िर

दिन निकलते ही निकल जाता है

इज्ज़त का दुशाला ओढ़ कर

तुम्हारे हाथों में चन्द रूपये छोड़ कर

तुम

अगले ग्राहक के ख्यालों में खो जाती हो

देह थक चुकी है

इसलिए बैठे बैठे ही सो जाती हो

एकबार फिर उठने के लिए

यानी रात भर लुटने के लिए

ये तुम्हारा कर्म है

इसलिए धर्म है

कोई पाप नहीं है

तुम्हारे आंसू ....

तुम्हारी पीड़ा ......

और तुम्हारी वेदना को नाप सके

दुनिया में ऐसा

कोई माप नहीं है

7 comments:

Mithilesh dubey August 12, 2009 at 9:08 AM  

मुस्लिम मुस्लिम नहीं रहता

इसाई इसाई नहीं रहता

बनिया बनिया नहीं रहता

पुजारी पुजारी नहीं रहता

कसाई कसाई नहीं रहता

रहता है शरीर

जो आता है और शान्त होकर चला जाता है ॥

भाई वाह क्या बात है, लाजवाब रचना।

निर्मला कपिला August 12, 2009 at 9:27 AM  

बहुत सुन्दर और मार्मिक अभिवयक्ति आभार्

अजित वडनेरकर August 12, 2009 at 9:42 AM  

बहुत खूब....

राजीव तनेजा August 12, 2009 at 10:02 AM  

सच्चाई को ब्याँ करती मार्मिक अभिव्यक्ति

रज़िया "राज़" August 12, 2009 at 10:50 AM  

आपकी यहाँ रचना समाज के सत्य को उजागर कर देती है। सफ़ेद पोशों पर बिल्कुल ठीक रचना।

Prem Farukhabadi August 12, 2009 at 12:45 PM  

Albela ji,
aapka jawab nahin!!!!!

Chandan Kumar Jha August 12, 2009 at 7:59 PM  

अद्भुत रचना...........

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