सुना है मेरे पास एक वोट है जो कि मेरा है, बाकायदा मेरे नाम से बना हुआ है
और मेरे लिए बना हुआ है। कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि वह वोट
अत्यन्त पवित्र है, कीमती है और मेरा फण्डामेन्टल राइट होने के साथ-साथ
मेरी ताकत भी है। एक ऐसी ताकत जिसके दम पर हमारे देश का समूचा
लोकतंत्र टिका हुआ है। लोकतंत्र को टिकाए रखना कोई आसान काम नहीं है
क्योंकि इसका रख-रखाव बहुत महंगा पड़ता है हरेक पांच साल बाद इसकी
हवा निकल जाती है और मतदान के जरिए करोड़ों रुपए खर्च कर के इसमें
फिर से नई हवा भरनी पड़ती है। कभी-कभी तो दो-ढाई साल में ही इसकी टैं
बोल जाती है और पूरे देश को अपने सारे काम-काज छोड़कर इसका पंक्चर
लगाना पड़ता है। लेकिन लोकतंत्र है बड़ी अच्छी चीज। हालांकि भार बहुत
ज्य़ादा होने के कारण हमारे विद्वान नेताओं ने लोकतंत्र की गाड़ी में से लोक
को निकाल लिया है, अब केवल तंत्र ही बचा है, लेकिन नाम अभी भी
लोकतंत्र का चल रहा है। लोकतंत्र अर्थात डेमोक्रेसी,
इसके लिए शैल चतुर्वेदी कहते थे-
डेमोक्रेसी के ये परिणाम न.जर आते हैं
कि चोर खादी में खुलेआम न.जर आते हैं
जो कल तक न तौला थे, न माशा थे, न रत्ती थे
वही आज कुर्सी पे किलोग्राम न.जर आते हैं
तो जैसे भी हो, लोकतंत्र को टिकाए रखना हमारी परंपरा भी है और
लाचारी भी क्योंकि इसके जरिए ह.जारोंस्न् नहीं, लाखों छोटे-बड़े नेता
कमा-खा रहे हैं। यदि लोकतंत्र न रहा तो सब बेचारे बेरो.जगार हो
पहले ही देश में भयंकर बेरो.जगारी है और उस पर मंदी की मार।
ना भाई ना, लोकतंत्र को तो टिकाए ही रखना है चाहे उसके लिए कोई
किसी का हाथ काटने की घोषणा करे या कोई किसी पर रोड रोलर
चलाने की धमकी दे। हमें सब बर्दाश्त करना पड़ेगा और न चाहते हुए
सबको साथ लेकर चलना पड़ेगा। यही इस देश की नियति है और यही
इस समय की मांग है, जिसे हमें भरना है ताकि आ.जादी की दूल्हन
सुहागन बनी रहे।
लेकिन...सोचने वाली बात यह है कि मेरा वह वोट, जिस पर कि अपने
देश का लोकतंत्र टिका हुआ है, जो कीमती है, पवित्र है या जो भी है, क्या
वाकई मेरा है? मेरे लिए है? यदि है तो वह कीमती वोट मेरे लिए क्या कर
सकता है? एटीएम मशीन में से रुपए निकाल सकता है? मेरे लिए बीमा
पॉलिसी खरीद सकता है? क्या मैं उसे अपने बैंक खाता में जमा करवा
सकता हूं? क्या वो मकान-दूकान, गाड़ी घोड़ा खरीदने में काम आता है?
क्या करूं उसका, खाऊं ? पीऊं ? पहनूं? या बिछाऊ ? किस काम आता है
वह कीमती वोट? क्या उसे दिखाकर ट्रेन-बस में यात्रा कर सकता हूं?
क्या उसे देखकर डॉक्टर मेरा इलाज मुफ्त में कर देगा? बोलो, बोलो क्या
वह पवित्र वोट अंगूठी में धारण करने से मेरे नवग्रह शांत हो जाएंगे?
क्या उसे दान करने से मेरे स्वर्गवासी पूर्वजों को वैकुण्ठ में स्थानांतरित
कर दिया जाएगा? यदि तुम कहते हो हां, तो तुम अव्वल दर्जे के झूठे हो
और अगर तुम कहते हो ना, तो फिर ये वोट कीमती कैसे हुआ? अरे इससे
ज्य़ादा कीमती तो मेरी पॉकेट में पड़ा प्लास्टिक का वो क्रेडिट कार्ड है
जिससे मैं उपरोक्त सारे काम कर सकता हूं।
इस पर तुर्रा ये है कि वो वोट मेरा फण्डामेन्टल राइट यानी बुनियादी हक है।
अरे भाई जब वो मेरा बुनियादी हक है तो मैं किसी दूसरे को क्यों दूं? और
दूं तो भी अपनी मर्जी से क्यों नहीं दूं? तुम कौन होते हो मुझे समझाने वाले
कि किसको दूं, हद हो गई बर्दाश्त की। उस वोट को डालने के लिए अपना
काम छोड़ना पड़ता है, घंटों लाइन में लगना पड़ता है और बदले में मिलता
कुछ भी नहीं। यानी खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना। मूर्ख
समझा है क्या मुझे? अरे मैं मुफ्त में किसी को गाली भी नहीं देता, तो
अपना फण्डामेन्टल राइट कैसे दे दूं।
सच तो यह है प्यारे कि मेरा वोट केवल काग़जों में मेरा है। असल में तो वो
तुम्हारा या तुम जैसे किसी अन्य नेता का है जो निर्धारित समय पर आएगा
और लेकर चला जाएगा। मैं तो बस एक चौकीदार हूं, एक वॉचमैन हूं जो
केवल ये ख्याल रखता हूं कि मेरा वोट मैं ही डालूं, मेरे नाम से कोई दूसरा न
डाल दे। क्यों, मैं ठीक कह रहा हूं ना?
और मेरे लिए बना हुआ है। कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि वह वोट
अत्यन्त पवित्र है, कीमती है और मेरा फण्डामेन्टल राइट होने के साथ-साथ
मेरी ताकत भी है। एक ऐसी ताकत जिसके दम पर हमारे देश का समूचा
लोकतंत्र टिका हुआ है। लोकतंत्र को टिकाए रखना कोई आसान काम नहीं है
क्योंकि इसका रख-रखाव बहुत महंगा पड़ता है हरेक पांच साल बाद इसकी
हवा निकल जाती है और मतदान के जरिए करोड़ों रुपए खर्च कर के इसमें
फिर से नई हवा भरनी पड़ती है। कभी-कभी तो दो-ढाई साल में ही इसकी टैं
बोल जाती है और पूरे देश को अपने सारे काम-काज छोड़कर इसका पंक्चर
लगाना पड़ता है। लेकिन लोकतंत्र है बड़ी अच्छी चीज। हालांकि भार बहुत
ज्य़ादा होने के कारण हमारे विद्वान नेताओं ने लोकतंत्र की गाड़ी में से लोक
को निकाल लिया है, अब केवल तंत्र ही बचा है, लेकिन नाम अभी भी
लोकतंत्र का चल रहा है। लोकतंत्र अर्थात डेमोक्रेसी,
इसके लिए शैल चतुर्वेदी कहते थे-
डेमोक्रेसी के ये परिणाम न.जर आते हैं
कि चोर खादी में खुलेआम न.जर आते हैं
जो कल तक न तौला थे, न माशा थे, न रत्ती थे
वही आज कुर्सी पे किलोग्राम न.जर आते हैं
तो जैसे भी हो, लोकतंत्र को टिकाए रखना हमारी परंपरा भी है और
लाचारी भी क्योंकि इसके जरिए ह.जारोंस्न् नहीं, लाखों छोटे-बड़े नेता
कमा-खा रहे हैं। यदि लोकतंत्र न रहा तो सब बेचारे बेरो.जगार हो
पहले ही देश में भयंकर बेरो.जगारी है और उस पर मंदी की मार।
ना भाई ना, लोकतंत्र को तो टिकाए ही रखना है चाहे उसके लिए कोई
किसी का हाथ काटने की घोषणा करे या कोई किसी पर रोड रोलर
चलाने की धमकी दे। हमें सब बर्दाश्त करना पड़ेगा और न चाहते हुए
सबको साथ लेकर चलना पड़ेगा। यही इस देश की नियति है और यही
इस समय की मांग है, जिसे हमें भरना है ताकि आ.जादी की दूल्हन
सुहागन बनी रहे।
लेकिन...सोचने वाली बात यह है कि मेरा वह वोट, जिस पर कि अपने
देश का लोकतंत्र टिका हुआ है, जो कीमती है, पवित्र है या जो भी है, क्या
वाकई मेरा है? मेरे लिए है? यदि है तो वह कीमती वोट मेरे लिए क्या कर
सकता है? एटीएम मशीन में से रुपए निकाल सकता है? मेरे लिए बीमा
पॉलिसी खरीद सकता है? क्या मैं उसे अपने बैंक खाता में जमा करवा
सकता हूं? क्या वो मकान-दूकान, गाड़ी घोड़ा खरीदने में काम आता है?
क्या करूं उसका, खाऊं ? पीऊं ? पहनूं? या बिछाऊ ? किस काम आता है
वह कीमती वोट? क्या उसे दिखाकर ट्रेन-बस में यात्रा कर सकता हूं?
क्या उसे देखकर डॉक्टर मेरा इलाज मुफ्त में कर देगा? बोलो, बोलो क्या
वह पवित्र वोट अंगूठी में धारण करने से मेरे नवग्रह शांत हो जाएंगे?
क्या उसे दान करने से मेरे स्वर्गवासी पूर्वजों को वैकुण्ठ में स्थानांतरित
कर दिया जाएगा? यदि तुम कहते हो हां, तो तुम अव्वल दर्जे के झूठे हो
और अगर तुम कहते हो ना, तो फिर ये वोट कीमती कैसे हुआ? अरे इससे
ज्य़ादा कीमती तो मेरी पॉकेट में पड़ा प्लास्टिक का वो क्रेडिट कार्ड है
जिससे मैं उपरोक्त सारे काम कर सकता हूं।
इस पर तुर्रा ये है कि वो वोट मेरा फण्डामेन्टल राइट यानी बुनियादी हक है।
अरे भाई जब वो मेरा बुनियादी हक है तो मैं किसी दूसरे को क्यों दूं? और
दूं तो भी अपनी मर्जी से क्यों नहीं दूं? तुम कौन होते हो मुझे समझाने वाले
कि किसको दूं, हद हो गई बर्दाश्त की। उस वोट को डालने के लिए अपना
काम छोड़ना पड़ता है, घंटों लाइन में लगना पड़ता है और बदले में मिलता
कुछ भी नहीं। यानी खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना। मूर्ख
समझा है क्या मुझे? अरे मैं मुफ्त में किसी को गाली भी नहीं देता, तो
अपना फण्डामेन्टल राइट कैसे दे दूं।
सच तो यह है प्यारे कि मेरा वोट केवल काग़जों में मेरा है। असल में तो वो
तुम्हारा या तुम जैसे किसी अन्य नेता का है जो निर्धारित समय पर आएगा
और लेकर चला जाएगा। मैं तो बस एक चौकीदार हूं, एक वॉचमैन हूं जो
केवल ये ख्याल रखता हूं कि मेरा वोट मैं ही डालूं, मेरे नाम से कोई दूसरा न
डाल दे। क्यों, मैं ठीक कह रहा हूं ना?
5 comments:
बिल्कुल सही कहा!!! बढिया!!!
KARAARA VYANG HAI ALBELAAJI....... MAZAA AA GAYA
बात तो सोचने योग्य है
बात तो सोचने योग्य है
हमारे एक मित्र हैं जावेद भाई, कलाकार हैं। कहते हैं एक गीत के माध्यम से
उनसे नहीं कहो कुछ बस एक हो जागो,
कि सत्ता चला रहे वो जमुहाइयों के साथ।
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ये पूरा गीत हमारे ब्लाग पर पोस्ट है।
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