हाँ हाँ
मैंने बेचा है
मैंने बेचा है
बेचा है लोहू जिगर का
बेचा है नूर नज़र का
लेकिन
ईमान नहीं बेचा
मैं खाक़ हूँ ...पर पाक हूँ
मेहनतकशी की नाक हूँ
तुम सा नहीं जो वतन को
शान्ति-चैन-ओ-अमन को
माँ भारती के बदन को
पीड़ितजनों के रुदन को
कुर्सी की खातिर
गैरों के हाथ बेच डालूँ
सत्ता के तलवे चाटूं
और चाँदी का जूता खाने के लिए
अपना ज़मीर बेच डालूं
अरे भ्रष्टाचारियों !
मैं बेचता हूँ सिर्फ़ पसीना
वो भी अपना !
और अपना ही वक़्त बेचता हूँ
पेट भराई के लिए
लेकिन इन्सानियत नहीं बेचता
किसी भी क़ीमत पर नहीं बेचता
क्योंकि मैं
मज़दूर हूँ .....लीडर नहीं !
गरीब हूँ ...काफ़िर नहीं !
बेचा है नूर नज़र का
लेकिन
ईमान नहीं बेचा
मैं खाक़ हूँ ...पर पाक हूँ
मेहनतकशी की नाक हूँ
तुम सा नहीं जो वतन को
शान्ति-चैन-ओ-अमन को
माँ भारती के बदन को
पीड़ितजनों के रुदन को
कुर्सी की खातिर
गैरों के हाथ बेच डालूँ
सत्ता के तलवे चाटूं
और चाँदी का जूता खाने के लिए
अपना ज़मीर बेच डालूं
अरे भ्रष्टाचारियों !
मैं बेचता हूँ सिर्फ़ पसीना
वो भी अपना !
और अपना ही वक़्त बेचता हूँ
पेट भराई के लिए
लेकिन इन्सानियत नहीं बेचता
किसी भी क़ीमत पर नहीं बेचता
क्योंकि मैं
मज़दूर हूँ .....लीडर नहीं !
गरीब हूँ ...काफ़िर नहीं !
7 comments:
बहुत सुन्दर अल्फाज बधाई.
बढिया लिखा भाई आज आपने
अपना ही वक्त बेचता हूं....क्या बात है.
आपने बहुत वाजिब बात कही है जिसका कोई जबाव नही......बहुत बहुत बधाई
बहुत ही वाजिब बात कही है आपने .......बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत अच्छी रचना......!चाहे कुछ कहो आजकल गरीबों में ही कुछ ईमान बचा है!इसका मतलब ये नहीं है की बाकी लोगों में ईमान नहीं है...है किन्तु उसकी अनेक शर्तें है,कीमत है....
Wah Sir! aaj aapki post bahut bha gai man ko.... ek sachchey hindustani ki misaal si pesh ki aapne.....mubarak ho
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