काम वतन के जो न आये, ऐसा तन बेकार है
दया धर्म का भाव न जिसमे, ऐसा मन बेकार है
पड़ा तिजोरी में सड़ जाए,
किन्तु समाज के काम न आये
मेज पे रख कर आग लगादो ऐसा धन बेकार है
_______________इसे गम्भीरता से न लेना भाई ...........
मुझे तो यों ही ऊँची- ऊँची फैंकने की आदत है ....हा हा हा हा हा हा
दया धर्म का भाव न जिसमे, ऐसा मन बेकार है
पड़ा तिजोरी में सड़ जाए,
किन्तु समाज के काम न आये
मेज पे रख कर आग लगादो ऐसा धन बेकार है
_______________इसे गम्भीरता से न लेना भाई ...........
मुझे तो यों ही ऊँची- ऊँची फैंकने की आदत है ....हा हा हा हा हा हा
8 comments:
हमे कौन सी कम फ़ेंकने की आदत है? पर भाई मेज का नुक्सान क्यों करवाते हो? बाहर सडक पर डाल कर आग लगवाने मे ज्यादा अच्छा रहेगा ना?:)
रामराम.
koi nahi lega gambhirata se.
aaj sab apne liye hi dhan bator rahe hai
yahi to desh ki vidambana hai
parantu aapne bahut sundar baat kahi
ताऊ जी की बात अमल में लाने लायक है ।
बात बहुत अच्छी-अच्छी कह गये हैं आप । आभार ।
आग लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, पहले बाहर तो फेक के देखो, लाइन लग जायेगी. कवि गिरधर बहुत पहले ही - दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम - की सीख दे गये हैं.
हा हा.. हमें तो सड़क का पता बता देना जी..
वाकई आपकी बात में दम है।
आप फेंकते रहिये हम लपेटने के लिए तेयार हैं !!!
jiske liye bekaar hain wo hamhe de de... Bekaar jeez ko bhi sambhal kar rakh lete hain ham :-)
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