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Albela Khatri

क्या है गर वो चले गए..........

अरमानों की भीड़ गई, दिल में उठते वलवले गए

साक़ी सागर और सुराही मस्ती के मश्गले गए


दूर उफ़क में दिखता था वह पैक़र एक मस्सर्रत का

जब-जब भी हम हुस्न देखने आसमान के तले गए


आज उदासी के साये से छलकी है ये शाम--हसीं

दूर बहुत अब दिल से अन्धड़-तूफ़ान--ज़लज़ले गए


उनके हर फ़र्मान को हमने सर - आँखों पे रक्खा पर

उनके हाथों ज़ख्म हमारे नमक लगा कर तले गए


कभी चमन में खिजां, कभी आती है यार बहार यहाँ

हरगिज़ मत रोना 'अलबेला' क्या है गर वो चले गए

11 comments:

विनोद कुमार पांडेय June 23, 2009 at 10:20 AM  

उनके हर फ़र्मान को हमने सर - आँखों पे रक्खा पर

उनके हाथों ज़ख्म हमारे नमक लगा कर तले गए

बहुत ही अच्छा लिखा आपने,
बधाई हो,

Murari Pareek June 23, 2009 at 11:01 AM  

आपको किसी की टिपण्णी की जरुररत नहीं है ! दरअसल आपकी नज्म देख कर शब्दों की तलाश करते हैं जो की नहीं मिलते !!

ओम आर्य June 23, 2009 at 11:04 AM  

बहुत ही बढिया......भाई बहुत ही बहक रहे है शब्दो के साथ साथ.......आप कहाँ कहाँ चले जाते हो ...........डुब गये हम भी..

श्यामल सुमन June 23, 2009 at 12:12 PM  

शब्दों का सुन्दर खेल। बहुत खूब अलबेला भाई।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) June 23, 2009 at 12:28 PM  

उनके हर फ़र्मान को हमने सर - आँखों पे रक्खा पर

उनके हाथों ज़ख्म हमारे नमक लगा कर तले गए
बहुत ही खूब मित्र, बहुत ही बेहतरीन .घुमा के रख दिया, शब्दों का सुंदर सयोंजन ,मेरा कमेन्ट नहीं आदर स्वीकार करे
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084

निर्मला कपिला June 23, 2009 at 3:02 PM  

उनके हर फ़र्मान को हमने सर - आँखों पे रक्खा पर

उनके हाथों ज़ख्म हमारे नमक लगा कर तले गए
बहुत बडिया आभार्

नीरज गोस्वामी June 23, 2009 at 3:04 PM  

आज उदासी के साये से छलकी है ये शाम-ए-हसीं
दूर बहुत अब दिल से अन्धड़-तूफ़ान-ओ-ज़लज़ले गए

बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है अलबेला जी आपने...बधाई...
(मेरे ब्लॉग पर एक डॉन आपकी इन्तेज़ार कर रहा है...देखें)

नीरज

ताऊ रामपुरिया June 23, 2009 at 3:16 PM  

बहुत सशक्त. शुभकामनाएं.

रामराम.

Pramendra Pratap Singh June 23, 2009 at 6:45 PM  

अच्‍छा लिखा है, अच्‍छा टेम्‍पलेट है।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao June 23, 2009 at 7:44 PM  

दूर उफ़क में दिखता था वह पैक़र एक मस्सर्रत का
जब-जब भी हम हुस्न देखने आसमान के तले गए

-वाह, कठिन शब्दों के अर्थ भी दे दें तो अच्छा हो। थोड़ा धीमे इंटर्नेट कनेक्सन वालों पर दया करें। ब्लॉग खुलने में अधिक समय लगता है।

Udan Tashtari June 23, 2009 at 11:27 PM  

इस बेहतरीन गज़ल के लिए बहुत बधाई.

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