विवादगर्भा गुरूघंटाल निरादरणीय श्री जी,
अमेरिका के ही टैक्सस के सेन एंटोनियो में रहते हैं गिरीश जौहरी , बहुत लम्बा चौड़ा परिचय है उनका लेकिन अभी मैं उनकी सिर्फ़ एक कविता आपके समक्ष अवलोकनार्थ प्रस्तुत करता हूँ :
भाव जहाँ पंक्ति में बन्ध कर
झूम रहे ज्यों सोम पिये हों
यमक, श्लेष, उपमा औ रूपक
शब्दों का आधार लिये हों
और हास्य की कोख जभी भी
व्यंग की काया जनती है ......तब ही तो कविता बनती है
हो प्रभात या हो संध्या
है नहीं प्रणय की बेला कोई
यौवन में उन्मत्त कुमारी
मन को जब लगती मनमोही
तभी लेखनी किसी कवि की
पल-पल स्याही में सनती है .......तब ही तो कविता बनती है
एक दूसरा रूप कवि का वह भी तो दिखलाना होगा
कवि ने ही युग को बदला है यह भी तो बतलाना होगा
प्रेम, प्रणय और सुन्दरता ही नहीं विषय कविता का होता
कर्महीन मानव बनता जब क्रान्ति बीज कवि ही तब बोता
है समाज का पतन हुआ अब एक प्रचण्ड भूचाल सा आया
मानव ही कारण इसका है मत कहना है ईश्वर माया
सज्जनता को दंड मिले और दुराचार जब आदर पाये
बेटा कहीं बिके पैसों में, बेटी कहीं जलाई जाये
दिव्य भोग लग रहे कहीं पर, कहीं लोग जूठन न पाते
भवनों का निर्माण कहीं हो, कहीं लोग जल में बह जाते
कवि कहीं भूखा सो जाता , कहीं दीवाली सी मनती है
________तब ही तो कविता बनती है
________तब ही तो कविता बनती है
पूर्ण कविता तो बहुत बड़ी है , मैंने कुछ ही अंश यहाँ दिए हैं ,,,गिरीश जी, मुआफ़ करना....
============क्या ये लेखन दो कौड़ी का है ?
=======सोचो, अपने सर पे हाथ रख कर सोचो ...
तब तक मैं ब्लॉगवाणी और चिटठा जगत पे अपने ब्लोगर मित्रों की रचनाएं पढ़ कर ज़रा टिप्पणियां दे कर आता हूँ ..........क्योंकि मैं उन्हें टिप्पणियां नहीं भेजूंगा तो वो क्या फालतू बैठे हैं जो मुझे भेजेंगे ......
आपके चक्कर में तो आज मेरी पूरी रात जाने वाली है ....हा हा हा हा हा हा
जल्दी ही मिलते हैं ..........क्रमश :
8 comments:
पहले तो लेखन को देश - विदेश में बाँटना ही गलत है . ख़राब देश में भी है , अच्छे विदेश में भी है .और आपने भी छक्का मार दिया .
पंक्तियों में अच्छा सामन्जस्य
सब स्थान पर श्रेष्ठ और कचरा लेखन होता है। अब यह तो पढ़ने वाले पर है कि वह हीरा चुनता है कि कोयला।
हमारे गुरु जी राकेश खण्डेलवाल जी वाशिंग्टन से लिखते है, जरा उनको भी इन्हें पढ़वा ही दें लगे हाथ:
http://geetkarkeekalam.blogspot.com/2009/06/blog-post.html
यदि इस कविता का मूल्य दो कौड़ी है, तो कौड़ी का एक्सेंज रेट 1 करोड़ रुपए के बराबर समझना चाहिए!
WAAAAAAAAAAAAH WAAAAAAAAAAAAAAAAH!!!
Kyaa baat hai..
Jaise padi laat hai!!!!
Meri "do kaudi" aapake saamane prastutu hai..
मैं भी विदेश में हूँ... और अपने सुख के लिए ही लिखता हूँ...
जैसा की पूजनीय तुलसीदास जी ने भी लिखा था..."स्वान्तः सुखाय"!!
उन्हें भी 'पंडितों' ने कहा था... की क्या दो कौड़ी का लिखते हो??
मेरी कोई औकात ही नहीं है।
मैंने तो कभी अपने आप को 'स्थापित' करने का प्रयास नहीं किया।
और यदि कोई विदेश में रहने वाला भारतीय करता भी है हिन्दी के माध्यम से... तो अनुचित नहीं है।
यहाँ रह कर हिन्दी की जोत जलाए रखना बहुत टेढ़ा कार्य है॥
हिन्दी के पाठक और प्रेमी यहाँ ढूंढे से भी नहीं मिलते हैं।
हाँ 'बॉलीवुड' का कार्यक्रम है तो देखिये क्या भीड़ उमड़ती है... किंतु वो तो 'हिन्दी' के लिए नहीं है!!
हम सब जानते हैं उस भीड़ का कारण।
जहाँ हर व्यक्ति इंग्लिश में बोलता हो... वहाँ हिन्दी की ध्वजा फहराना कैसे सरल हो??
मेरी कुछ दो कौड़ी की पंक्तियाँ समर्पित हैं उन 'पुरोधा, महारथी, महागुरु वरिष्ठों' को...
ये जीवन है दो कौड़ी का...
लेखन है मन मौजी का...
हम दूर रहे पर तोड़ी ना..
हिंदी-डोर सही भले रस्सी ना..
लगे रहे हिंदी के चिपके..
भले आम मिले हो पिचके..
माना तुम गूदा हम छिलके..
किंतु परदेश में हिंदी फैलाते...
संकट में भी हिंदी दीप जलाते..
भले पड़ी हो हिंगलिश की लातें..
करते हैं हम शुद्ध हिंदी में ही बातें..
जो भी बच्चे हमारे पास हैं आते..
हम भारत से अच्छी हिंदी उन्हें सिखाते..
हिंदी का है हुआ कबाड़ा..
आंग्ल भाषा ने उसे पछाड़ा..
सबने पढ़ा उल्टा पहाड़ा..
कहा गया है आपका अखाड़ा??
आप ज्ञानी पुरोधा, मठाधीश हैं...
भारत में हिंदी बचाने में विफल हैं..
अरे जो हिंदी फिल्मों का ही खाते हैं..
'इंटर-वियूह' में इंग्लिश बक जाते हैं..
आप सब मुहँ देखते रह जाते हैं..
फिर भी उसे शान समझ कर आते है..
अब हिंदी बोलना किसकी शान है?
और हिंदी में बोलना अपमान है!!!
बच्चा बच्चा इंग्लिश ही बोले...
फिर देखो माँ बाप गर्व से फूले..
और चले गए सावन के झूले...
हम सब भी अपनी भाषा भूले...
अरे हम तो विदेशी दो कौड़ी के सही..
पर हमने हिंदी भाषा है बचा के रखी..
जहां किसी और भाषा की पौध लगी नहीं..
वहाँ आपका 'सुगन्धित महँगा' गुलाब नहीं..
हमारा दो कौड़ी का पेड़ बबूल ही सही....
~जयंत चौधरी - दो कौड़ी..
(मैंने जानबूझकर इसे दो कौड़ी जैसा ही लिखा है... पाठकों, मैं आशा करता हूँ आप क्षमा करेंगे..)
ये तय कौन करेगा कि यह लेखन हीरा है या कोयला? सबकी अपनी अपनी पसंद. आखिर हीरा बःई तो कोयले का बालक ही है.:)
रामराम.
जहां किसी और भाषा की पौध लगी नहीं..
वहाँ आपका 'सुगन्धित महँगा' गुलाब नहीं..
करते हैं हम शुद्ध हिंदी में ही बातें..
जो भी बच्चे हमारे पास हैं आते..
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