माना तेरी मेरी कुछ
लगती नहीं है पर
किसी की बहन - बेटी वो भी कहलाती है
उदर की भूख के
तन्दूर में जो मोम सम
तड़प-तड़प, तिल - तिल जली जाती है
सीने के नासूरों से है
बे-ख़बर वो मगर
गैरों के बदन, दोनों हाथों सहलाती हैं
यही तो समाज उसे
रात भर भोगता है
इसी ही समाज में वो वेश्या कहलाती है
लगती नहीं है पर
किसी की बहन - बेटी वो भी कहलाती है
उदर की भूख के
तन्दूर में जो मोम सम
तड़प-तड़प, तिल - तिल जली जाती है
सीने के नासूरों से है
बे-ख़बर वो मगर
गैरों के बदन, दोनों हाथों सहलाती हैं
यही तो समाज उसे
रात भर भोगता है
इसी ही समाज में वो वेश्या कहलाती है
9 comments:
कविता अच्छी है, पुरुष मानसिकता को ही प्रकट करती है।
naariyon ko weshyaa kah dene men kisee ka kya bigad jata hai
अलबेला भाई मरती हुई संवेदना के युग में आपकी यह रचना अच्छी लगी। कहते हैं कि-
बद नजर उठने ही वाली थी किसी की जानिब।
अपनी बेटी का खयाल आया तो दिल काँप गया।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
आइना दिखाती कविता।
बधाई।
syamal ji ki comments se bada kuchh kaha nahi ja sakata hai .....kash samaaj me rahane wala. har ek aadmi aisa soch pata.
बहुत गहरी चोट कर गये खत्री जी. बिल्कुल सटीकता से कह गये.
रामराम.
आपकी कलम चले और विचार इससे कम आये यह सम्भव नहीं, बधाई
अत्यंत संवेदनशील कविता लिखी है आपने. बहुत खूब......बधाई स्वीकारें.....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
bahut sahi ustaad ji ,,,, padhkar dil ruk sa gaya ..aaj ki maansik sanskrti [ ? ] par chot karti hui ye kavita ...
aapko dil se badhai ..
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