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Albela Khatri

समाज में वो वेश्या कहलाती है .................

माना तेरी मेरी कुछ

लगती नहीं है पर

किसी की बहन - बेटी वो भी कहलाती है


उदर की भूख के

तन्दूर में जो मोम सम

तड़प-तड़प, तिल - तिल जली जाती है


सीने के नासूरों से है

बे-ख़बर वो मगर

गैरों के बदन, दोनों हाथों सहलाती हैं


यही तो समाज उसे

रात भर भोगता है

इसी ही समाज में वो वेश्या कहलाती है

9 comments:

दिनेशराय द्विवेदी June 12, 2009 at 6:29 PM  

कविता अच्छी है, पुरुष मानसिकता को ही प्रकट करती है।

alka mishra June 12, 2009 at 6:32 PM  

naariyon ko weshyaa kah dene men kisee ka kya bigad jata hai

श्यामल सुमन June 12, 2009 at 6:40 PM  

अलबेला भाई मरती हुई संवेदना के युग में आपकी यह रचना अच्छी लगी। कहते हैं कि-

बद नजर उठने ही वाली थी किसी की जानिब।
अपनी बेटी का खयाल आया तो दिल काँप गया।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' June 12, 2009 at 6:49 PM  

आइना दिखाती कविता।
बधाई।

ओम आर्य June 12, 2009 at 7:06 PM  

syamal ji ki comments se bada kuchh kaha nahi ja sakata hai .....kash samaaj me rahane wala. har ek aadmi aisa soch pata.

ताऊ रामपुरिया June 12, 2009 at 7:42 PM  

बहुत गहरी चोट कर गये खत्री जी. बिल्कुल सटीकता से कह गये.

रामराम.

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर June 12, 2009 at 8:55 PM  

आपकी कलम चले और विचार इससे कम आये यह सम्भव नहीं, बधाई

Anonymous June 13, 2009 at 3:01 AM  

अत्यंत संवेदनशील कविता लिखी है आपने. बहुत खूब......बधाई स्वीकारें.....

साभार
हमसफ़र यादों का.......

vijay kumar sappatti June 13, 2009 at 1:46 PM  

bahut sahi ustaad ji ,,,, padhkar dil ruk sa gaya ..aaj ki maansik sanskrti [ ? ] par chot karti hui ye kavita ...

aapko dil se badhai ..

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